अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ गोली काण्ड (१९१९) से
समस्त देशवासी आक्रोश में थे तथा चाहते थे कि इस
नरसंहार के नायक जनरल डायर पर अभियोग
चलाया जाये। गान्धी ने भारतवासियों के इस आग्रह
को समर्थन देने से स्पष्ठ मना कर दिया।
भगत सिंह व उसके साथियों के मृत्युदण्ड के निर्णय से
सारा देश क्षुब्ध था व गान्धी की ओर देख रहा था,
कि वह हस्तक्षेप कर इन देशभक्तों को मृत्यु से
बचायें, किन्तु गान्धी ने भगत सिंह
की हिंसा को अनुचित ठहराते हुए जनसामान्य की इस
माँग को अस्वीकार कर दिया।
६ मई १९४६ को समाजवादी कार्यकर्ताओं को दिये
गये अपने सम्बोधन में गान्धी ने मुस्लिम लीग
की हिंसा के समक्ष अपनी आहुति देने की प्रेरणा दी।
मोहम्मद अली जिन्ना आदि राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं
के विरोध को अनदेखा करते हुए १९२१ में गान्धी ने
खिलाफ़त आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की।
तो भी केरल के मोपला मुसलमानों द्वारा वहाँ के
हिन्दुओं की मारकाट की जिसमें लगभग १५०० हिन्दू
मारे गये व २००० से अधिक को मुसलमान
बना लिया गया। गान्धी ने इस हिंसा का विरोध
नहीं किया, वरन् खुदा के बहादुर बन्दों की बहादुरी के
रूप में वर्णन किया।
१९२६ में आर्य समाज द्वारा चलाए गए
शुद्धि आन्दोलन में लगे स्वामी श्रद्धानन्द की अब्दुल
रशीद नामक मुस्लिम युवक ने हत्या कर दी,
इसकी प्रतिक्रियास्वरूप गान्धी ने अब्दुल रशीद
को अपना भाई कह कर उसके इस कृत्य को उचित
ठहराया व शुद्धि आन्दोलन को अनर्गल राष्ट्र-
विरोधी तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिये
अहितकारी घोषित किया।
गान्धी ने अनेक अवसरों पर शिवाजी, महाराणा प्रताप व
गुरू गोबिन्द सिंह को पथभ्रष्ट देशभक्त कहा।
गान्धी ने जहाँ एक ओर कश्मीर के हिन्दू राजा हरि सिंह
को कश्मीर मुस्लिम बहुल होने से शासन छोड़ने व
काशी जाकर प्रायश्चित करने का परामर्श दिया,
वहीं दूसरी ओर हैदराबाद के निज़ाम के शासन का हिन्दू
बहुल हैदराबाद में समर्थन किया।
यह गान्धी ही थे जिन्होंने मोहम्मद
अली जिन्ना को कायदे-आज़म की उपाधि दी।
कांग्रेस के ध्वज निर्धारण के लिये
बनी समिति (१९३१) ने सर्वसम्मति से चरखा अंकित
भगवा वस्त्र पर निर्णय लिया किन्तु गान्धी की जिद
के कारण उसे तिरंगा कर दिया गया।
कांग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में नेताजी सुभाष चन्द्र
बोस को बहुमत से कॉंग्रेस अध्यक्ष चुन
लिया गया किन्तु
गान्धी पट्टाभि सीतारमय्या का समर्थन कर रहे थे,
अत: सुभाष बाबू ने निरन्तर विरोध व असहयोग के
कारण पद त्याग दिया।
लाहौर कांग्रेस में वल्लभभाई पटेल का बहुमत से चुनाव
सम्पन्न हुआ किन्तु गान्धी की जिद के कारण यह पद
जवाहरलाल नेहरु को दिया गया।
१४-१५ १९४७ जून को दिल्ली में आयोजित अखिल
भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में भारत विभाजन
का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था, किन्तु गान्धी ने
वहाँ पहुँच कर प्रस्ताव का समर्थन करवाया। यह
भी तब जबकि उन्होंने स्वयं ही यह कहा था कि देश
का विभाजन उनकी लाश पर होगा।
जवाहरलाल की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल ने
सोमनाथ मन्दिर का सरकारी व्यय पर पुनर्निर्माण
का प्रस्ताव पारित किया, किन्तु
गान्धी जो कि मन्त्रीमण्डल के सदस्य भी नहीं थे; ने
सोमनाथ मन्दिर पर सरकारी व्यय के प्रस्ताव
को निरस्त करवाया और १३ जनवरी १९४८
को आमरण अनशन के माध्यम से सरकार पर
दिल्ली की मस्जिदों का सरकारी खर्चे से पुनर्निर्माण
कराने के लिए दबाव डाला।
पाकिस्तान से आये विस्थापित हिन्दुओं ने
दिल्ली की खाली मस्जिदों में जब अस्थाई शरण
ली तो गान्धी ने उन उजड़े हिन्दुओं को जिनमें वृद्ध,
स्त्रियाँ व बालक अधिक थे मस्जिदों से खदेड़ बाहर
ठिठुरते शीत में रात बिताने पर मजबूर किया गया।
२२ अक्तूबर १९४७ को पाकिस्तान ने कश्मीर पर
आक्रमण कर दिया, उससे पूर्व माउण्टबैटन ने भारत
सरकार से पाकिस्तान सरकार को ५५ करोड़ रुपये
की राशि देने का परामर्श दिया था। केन्द्रीय
मन्त्रिमण्डल ने आक्रमण के दृष्टिगत यह राशि देने
को टालने का निर्णय लिया किन्तु गान्धी ने उसी समय
यह राशि तुरन्त दिलवाने के लिए आमरण अनशन शुरू
कर दिया जिसके परिणामस्वरूप यह राशि पाकिस्तान
को भारत के हितों के विपरीत दे दी गयी।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
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