Sunday, November 24, 2019

दहेज की बारात - काका हाथरसी (बृज भाषा में)

जा दिन एक बरात कौ, मिल्यौ निमंत्रण-पत्र,
 फूले-फूले हम फिरें, यत्र-तत्र-सर्वत्र।
 यत्र-तत्र-सर्वत्र, फरकती बोटी-बोटी, 
बा दिन अच्छी नाहिं लगी, अपने घर रोटी। 
कहँ ‘काका’ कविराय, लार म्हौंड़ेसों टपके,
कर लड़ुअन की याद, जीभ स्याँपिन सी लपकै। 

मारग में जब है गई अपनी मोटर फेल, 
दौरे स्टेशन, लई तीन बजे की रेल। 
तीन बजे की रेल, मच रही धक्कमधक्का, 
द्वै मोटे गिर परे, पिच गए पतरे कक्का। 
कहँ ‘काका’ कविराय, पटक दूल्हा ने खाई, 
पंडितजू रह गए, चढ़िगयौ ननुआ नाई। 
नीचे कों करि थूथरौ, ऊपर कों करि पीठ, 
मुरगा बनि बैठे हमहुँ, मिली न कोऊ सीट। 
मिली न कोऊ सीट, भीर में बनिगौ भुरता, 
फारि लै गयौ कोउ हमारौ आधौ कुरता। 
कहँ ‘काका’ कविराय, परिस्थिति बिकट हमारी, 
पंडितजी रहि गए, उन्हीं पै ‘टिकस’ हमारी। 

फक्क-फक्क गाड़ी चलै, धक्क-धक्क जिय होय, 
एक पन्हैया रहि गई, एक गई कहुँ खोय। 
एक गई कहुँ खोय, तबहिं घुसि आयौ टी-टी, 
माँगन लाग्यौ टिकस, रेल ने मारी सीटी। 
कहँ ‘काका’, समझायौ पर नहिं मान्यौ भैया, 
छीन लै गयौ, तेरह आना तीन रुपैया। 

जनमासे में मचि रह्यो ठंडाई कौ सोर, 
मिर्च और सक्कर दइऔ सपरेटा में घोर। 
सपरेटा में घोर, बराती करते हुल्लड़, 
स्वाद-स्वाद में खेंचि गए हम बारह कुल्हड़। 
कहँ ‘काका’ कविराय, पेट है गयौ नगाड़ौ, 
निकरौसी के समय हमें चढि़आयौ जाड़ौ। 

बेटावारे ने कही, यही हमारी टेक, 
दरबज्जे पै लै लऊँ, नगद पाँच सौ एक। 
नगद पाँच सौ एक, परेंगी तब ही भाँवर, 
दूल्हा करिदौ बंद, दई भीतर सौं साँकर। 
कहँ ‘काका’ कवि, समधी डोलें रूसे-रूसे, 
अर्धरात्रि है गई, पेट में कूदें मूसे। 

बेटीवारे ने बहुत जोरे उनके हाथ, 
पर बेटा के बाप ने सुनी न कोऊ बात। 
सुनी न कोऊ बात, बराती डोलें भूखे, 
पूरी-लडुआ छोड़, चना हू मिले न सूखे। 
कहँ ‘काका’ कविराय, जान आफत में आई, 
जम की भैन बरात, कहावत ठीक बनाई। 

समधी-समधी लडि़ परे तै न भई कछु बात, 
चले घरात-बरात में थप्पड़-घूँसा-लात। 
थप्पड़-घूँसा-लात, तमासौ देखें नारी, 
देख जंग कौ दृश्य, कँपकँपी बँधी हमारी। 
कहँ ‘काका’ कवि, बाँध बिस्तरा भाजे घर कों, 
पीछे सब चल दिए, संग में लैकें वर कों। 

मार भातई पै परी, बनिगौ वाको भात, 
बिना बहू के गाम कों, आई लौट बरात। 
आई लौट बरात, परि गयौ फंदा भारी, 
दरबज्जे पै खड़ीं, बरातिन की घरवारी। 
कहँ काकी ललकार, लौटकें वापिस जाऔ, 
बिना बहू के घर में कोऊ घुसन न पाऔ। 

हाथ जोरि माँगी क्षमा, नीची करकें मोंछ, 
काकी ने पुचकारिकें, आँसू दीने पोंछ। 
आँसू दीने पोंछ, कसम बाबा की खाई, 
जब तक जीऊँ, बरात न जाऊँ रामदुहाई। 
कहँ ‘काका’ कविराय, अरे ओ बेटावारे, 
अब तौ दै दै, टी-टी वारे दाम हमारे। 

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