Wednesday, July 3, 2024

अनाज भंडारण में सल्फास की गोलियां डालना कैंसर को निमंत्रण देना है - डा. जुगल किशोर

अनाज भण्डारण में सल्फास की गोलियां डालना सीधे कैंसर को दावत देना है, ऐसे रसायनों से इंसान की बीमारी से लड़ने की क्षमता खत्म हो जाती है और जुखाम से लेकर कैंसर तक हर बीमारी की पकड़ में ऐसा व्यक्ति जल्दी आता है। 
प्रकृति से हमें तोहफे में मिले इम्यून सिस्टम में कमजोरी आती है जिससे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता क्षीण हो जाती है। उक्त जानकारी कृषि बीज गोदाम प्रभारी डॉ जुगुल किशोर ने देते हुए बताया कि एल्युमीनियम फास्फेट जिसे सल्फास कहा जाता है जिसका प्रयोग जानकारी के अभाव में किसान अनाज भण्डारण के समय उसमें करते हैं जो बिल्कुल ग़लत है। जबकि आर्गनिक व देशी तरीका अनाज को सुरक्षित रखने का बिना खर्च मौजूद है। 
नीम की पत्ती से लेकर मिर्च,हींग का प्रयोग कीटों से बचाने के लिए कारगर है लेकिन जल्दबाजी में किसान ऐसे रसायनों का इस्तेमाल कर अपने ही सेहत से खिलवाड़ कर रहा है। उन्होंने बताया कि कपड़े में तीन चार तह के बीच हींग का टुकड़ा रखकर अनाज भण्डारण में दो तीन जगह रखने से कीड़े इसके गंध से पास नहीं फटकते और किसी तरह से नुकसान भी नहीं है।इसी प्रकार यदि बीज संजो कर रखने हैं तो आप इन्हें सरसों एवं कड़ुवा तेल में मलकर राख में रखने से सालों साल तक कोई समस्या नहीं है।अनाज भण्डारण करने की परंपरा हमारे देश में प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक विधि रही है ताकि अनाज सुरक्षित व पवित्र भी बनी रहे। आजकल टीन के पतरों से बनी‌ टंकियों को अनाज रखने के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है।इस तरह के टंकियों में अनाज भण्डारण से पूर्व तीन चार दिन धूप में रखें और इसके भीतरी सतह में नीम के तेल व कपूर का लेप करें जिससे अंदर अंडे लार्वे खत्म हो जाए अनाज को सुखाकर रखें। अगर हो सके तो प्याज, लहसुन, एवं तुलसी की सूखी पत्तियां भी डाल सकते हैं इससे भण्डारण किया गया अनाज सुरक्षित रहेगा।

Thursday, March 7, 2024

पैसे के आवंटन से किसी को संतुष्टि नहीं है


पैसे के चक्कर से किसी एक व्यक्ति को भी संतुष्टि नहीं मिली। पैसे का संग्रह करने जाते हैं तो और संग्रह करने की जगह बना ही रहता है। पैसे को बाँटने (दान आदि करने) जाते हैं तो और बाँटने की जगह रखा ही रहता है। पैसे को गाड़ने जाते हैं तो और गाड़ने की जगह बना ही रहता है। इससे संतुष्टि की जगह तो कभी किसी को मिलती नहीं है। इसके तृप्ति बिन्दु की कोई जगह ही नहीं है। इसके तृप्ति बिन्दु की कोई दिशा भी नहीं है। स्वयं हम पैसे से संतुष्ट हो नहीं सकते। पैसे को बाँटने से भी संतुष्ट नहीं हो सकते। ज्यादा पैसे इकट्ठा कर लिए उससे कोई समझदार हो गया हो, यह प्रमाणित नहीं हुआ। कुछ भी पैसे नहीं रख कर, घर बार बेच कर कोई समझदार हो गया हो, यह भी प्रमाणित नहीं हुआ। ज्यादा कम लगा ही रहता है। न ज्यादा में तृप्ति है, न कम में तृप्ति है, न ही बीच की किसी स्थिति में। पैसे के चक्कर में लक्ष्य सुविधा संग्रह ही बनता है। सुविधा संग्रह का कोई तृप्ति बिन्दु नहीं है। कितना भी कर लो और चाहिए, यह बना ही रहता है। पैसे के चक्कर में मानव की संतुष्टि का कोई निश्चित स्वरूप निकल ही नहीं सकता।

-संवाद
नागराज जी के साथ
(मध्यस्थदर्शन)

Wednesday, December 7, 2022

क्या आप आपके अंतिम समय में ऐसी मौत चाहेंगे????

😢❤️😢



पैसे वाले लोगों की एक आश्चर्यजनक रीति चल पड़ी है...,
बुजुर्ग बीमार हुए, एम्बुलेंस बुलाओ, जेब के अनुसार अच्छे अस्पताल ले जाओ, ICU में भर्ती करो और फिर जैसा जैसा डाक्टर कहता जाए, मानते जाओ!
और
अस्पताल के हर डाक्टर, कर्मचारी के सामने आप कहते है कि "पैसे की चिंता मत करिए, बस इनको ठीक कर दीजिए"
और
डाक्टर और अस्पताल कर्मचारी लगे हाथ आपके मेडिकल ज्ञान को भी परख लेते है और
फिर आपके भावनात्मक रुख को देखते हुए खेल आरम्भ होता है...

कई तरह की जांचे होने लगती है, फिर रोज रोज नई नई दवाइयां दी जाती है, रोग के नए नए नाम बताये जाते है और आप सोचते है कि बहुत अच्छा इलाज हो रहा है!
80 साल के बुजुर्ग के हाथों में सुइयां घुसी रहती है, बेचारे करवट तक नही ले पाते, ICU में मरीज के पास कोई रुक नही सकता या बार बार मिल नही सकते!
भिन्न नई नई दवाइयों के परीक्षण की प्रयोगशाला बन जाता है 80 वर्षीय शरीर।

आप ये सब क्या कर रहे है एक शरीर के साथ????

जबकि आपके ग्रन्थों में भी बताया गया है कि मृत्यु सदा सुखद परिस्थिति में होने, लाने का प्रयत्न करना चाहिए!
इसलिए
वर्तमान में ग्रामीण क्षेत्र में बुजुर्ग अंतिम अवस्था मे घर मे हैं तो जिन लोगो को वो अंतिम समय मे देखना चाहते है, अपना वंश, अपना परिवार, वो सब आसपास रहते है!

बुजुर्ग की कुछ इच्छा है खाने की तो तुरन्त उनको दिया जाता है, भले ही वो एक कौर से अधिक नही खा पाएं,
लेकिन मन की इच्छा पूरी होना आवश्यक है...
मन की अंतिम अवस्था शांत, तृप्त होगी तो मृत्यु आसान, कष्टरहित लगती है!

अस्पताल के ICU में क्या ये संभव होता है?????
अस्पताल में कष्टदायक, सुइयां घुसे शरीर की पीड़ा...
क्या अस्पताल के ICU में बुजुर्ग की हर इच्छा पूरी होती है????

रोज नई नई दवाइयों का प्रयोग, कष्टदायक यांत्रिक उपचार, मनहूस जैसे दिनभर दिखते अपरिचित चेहरों के बीच बुजुर्ग के शरीर को बचाईये!!!

अगर आप सक्षम हैं तो अच्छी नर्स को घर मे रखिये, डॉक्टर फ़ीस लेकर रोज घर पर चेकअप करते है, घर मे सभी सुविधाएं उपचार करने का प्रयत्न कीजिये!

इस बुजुर्ग के पैर चेन से बंधे है, हाथ ड्रिप से स्थिर है, मुँह को ऑक्सीजन किट से बंद कर रखा है!
बुजुर्ग को कैदी बना रखा है!

क्या आप आपके अंतिम समय में ऐसी मौत चाहेंगे????
Neha Dixit Sharma

Sunday, April 24, 2022

हमें नहीं बनना प्राइवेट स्कूल जैसा ...

आखिर क्यों करते हैं हम

प्राइवेट स्कूलों से बराबरी

हम क्यों कहते हैं....

कि हमारे स्कूल प्राइवेट स्कूलों से कम नहीं...सच तो ये है

हमारे स्कूलों सा एक भी प्राइवेट स्कूल नहीं
और हो भी नहीं सकता।।।
हम बच्चे के एडमिशन से पहले नही लेते बच्चे का टेस्ट और
माता पिता का साक्षात्कार .....ये जांचने के लिए कि  वो बच्चे को पढ़ाने के लिए योग्य हैं या नहीं ....या उनके जीवन का स्तर जांचने के लिए।।।
हमें पता होता है कि हमारे बच्चों के अधिकतर माता पिता के लिए अक्षर केवल काला रंग भर हैं।।।।
बड़ी चुनौती है जिसे केवल हमारे स्कूल  स्वीकार करते हैं ।

होली दीवाली ईद बकरीद क्रिस्टमस हर त्योहार को खास  बनाने के लिए पूरी जान लगा देते हैं और बड़े बड़े स्कूलों की तरह हमारे स्कूल इसके लिए कोई एक्टिविटी फीस नहीं लेते हैं ।।।।

किसी भी क्षेत्र में बच्चों को कुछ करना हो तो
हम अभिभावक बन कर उनके लिए सारे सामान जुटाते हैं उन्हें मंच तक पहुचाते हैं
हमारे स्कूल प्राइवेट स्कूलों की तरह सामान की लिस्ट घर पर कहाँ भिजवाते है?

प्राइवेट स्कूल जो कि लेते हैं नर्सरी के बच्चों से भी कंप्यूटर फीस हमारे स्कूलों की smartclass की कीमत तो  बच्चों की मुस्कान से पूरी हो जाती है।

हमारे स्कूल फैंसी ड्रेस कॉम्पटीशन के नाम पर  पेरेंट्स को बाजार दर बाजार घूमने पर मजबूर नहीं करते ।

हमारे स्कूल जिम्मेदारी लेते हैं लिखाने पढ़ाने और सिखाने की।।। बड़े बड़े स्कूलों की तरह ये लिखाने के बाद
समझाने और याद कराने की जिम्मेदारी अभिभावक को नहीं सौंपते ।

हमारे स्कूल let us learn पर चलते हैं पाठ लिखाकर learn it पर नहीं।।।

हमारे स्कूलों का बस्ता थोड़ा कम अच्छा सही पर वजन उतना ही होता है जितने में बच्चों के शरीर,मन और मस्तिष्क पर बोझ न पड़े ।।।।प्राइवेट स्कूलों की तरह हमारे स्कूल बस्ता भारी और अभिभावक की जेब हल्की नहीं करते।।।।।

हमारे बच्चे बीमार होते हैं तो पूरे स्कूल को पता होता है पर बड़े बड़े स्कूलों का फ़ोन पेरेंट्स के पास केवल तब आता है जब फीस 2 दिन late हो जाती है ।

हमारे स्कूल ,शिक्षक और हमारे अभिभावक बच्चों को सहजता से सीखने देते हैं  बच्चों के 60% को भी सेलिब्रेट करते हैं 90%कि दौड़ में भगाते भगाते उनका बचपन नहीं छीनते।।।।

नहीं होना है हमें प्राइवेट स्कूलों की तरह हमें  देना है अपने बच्चों को सरल सी दुनियाँ उनके जीवन से जुड़े अनगिनत खेल कविता और कहानियां  पेड़ पौधों का साथ और दोस्तों की मस्त टोलियां खिलखिलाते हंसी के फव्वारे और सीखने के लिए सुविधाओं से भरे केवल वो  कमरे नहीं जो कुछ दिनों में उबाऊ हो जाते हैं ।।।।।प्रकृति का सजाया हुआ खुला  आसमान देना है।।।।तो गर्व से कहें कि हम सरकारी स्कूल के शिक्षक हैं।।।

- via Santosh Kumari जी

Sunday, December 12, 2021

बच्चे भी रोए-बड़े भी रोए और किसान दिल से रोए


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तंबू समेटते समय मंजर अजीब था जनाब। किसानों के घर लौटते ही गरीब बच्चों को भोजन और आवास की चिंता सताने लगी है। लंगर में आज यह उनका अंतिम भोजन था।
...दिल्ली-हरियाणा के सिंघू सीमा पर हजारों किसानों ने अपना विरोध प्रदर्शन समाप्त कर दिया और लंगर बंद कर दिए हैं। 13 वर्षीय आर्यन को अब अपने दो जून की रोटी की चिंता सता रही है। आर्यन कोई अकेला नहीं, बल्कि उसकी तरह सैकड़ों लोग हैं, जो किसानों की सामुदायिक रसोई में भोजन करते थे और एक साल से अधिक के विरोध प्रदर्शन के दौरान किसानों के तंबुओं में ही सो जाते थे।
...शनिवार को झुग्गी वासियों सहित बड़ी संख्या में बच्चों और आसपास के गरीबों ने किसानों के लंगर पर आखिरी बार पेटभर भोजन किया। बच्चों ने बताया कि हम नाश्ता, दोपहर का भोजन और रात का खाना यहीं लंगर में करते थे। आज लंगर में यह हमारा आखिरी भोजन है। अब हमें भूख मिटाने को बहुत संघर्ष करना होगा। किसानों ने कहा कि उनके मन में भी इन बच्चों के लिए भावनाएं पैदा हो गई थीं। ये बच्चे विरोध स्थल पर आते थे और उन्हें अपने बेट-बेटियों और पोते की याद दिलाते थे।
...मोहाली के सतवंत सिंह ने कहा, ये बच्चे हमारे प्रदर्शन का हिस्सा बन गए थे। वे यहां भोजन के लिए आते थे। उन्होंने मुझे मेरे पोतों की याद दिला दी थी। मुझे उन्हें यहां अपने साथ रखना अच्छा लगता था। अब ईश्वर उनकी रक्षा करेंगे। हम ऐसे बच्चों के भविष्य को लेकर बहुत चिंतित हैं।
...मलिन बस्तियों के निवासी आमतौर पर इस क्षेत्र में कारखानों या गोदामों में काम करते हैं। यह बेघर लोग किसानों के अस्थायी टेंटों में ही रहते थे। अब उन्हें किसी छत को लेकर चिंता सता रही थी। बिहार के सुपौल के 38 वर्षीय मोनू कुशवाहा ने कहा कि किसानों के विरोध-प्रदर्शन के लिए सिंघू सीमा पर आने से पहले, वह फुटपाथ पर सोता था। पिछले साल आंदोलन शुरू होने के बाद हालात बदल गये थे। कुशवाहा ने अफसोस जताते हुए कहा, किसानों के आंदोलन के दौरान मैं उनके एक तंबू में सोता था और लंगर में खाना खाता था। अब यह सब बंद हो जाएगा और मैं फिर से फुटपाथ पर आ जाऊंगा, मेरे जैसे सैकड़ों लोग ठंड-गर्मी में भटकते रहेंगे।
...कुंडली में केएफसी टॉवर के पास स्थित झुग्गियों में रहने वाले आठ वर्षीय मौसम ने कहा कि वह पिछले एक साल से लंगर में अच्छा खाना खा रही थी। उसने कहा, मेरे पिता एक कारखाने में काम करते हैं लेकिन परिवार बड़ा है, इसलिए हमें अक्सर एक समय का भोजन छोडऩा पड़ता है। पिछले एक साल से हम लंगर में बहुत सारा खाना खाते थे। हम घर के लिए भी खाना ले जाते थे। अब यह सब बंद हो जाएगा। हमारी बस्ती में जब कोई बीमार हो जाता था तो हम मरीज को लेकर यहीं आ जाते थे। यहां डाक्टर दवा देते थे और हम लोग सही हो जाते थे।
...11 वर्षीय तरुण ने कहा, मेरा स्कूल राजमार्ग के दूसरी ओर है। जब से किसान यहां आए, मुझे सडक़ पार करने में कोई समस्या नहीं होती थी। मैं यहां खाना खाता था और फिर स्कूल चला जाता था। मुझे कोई न कोई सडक़ पार करा देता था। यह मेरे लिए दुख की बात है कि किसान वापस जा रहे हैं। तरुण के पिता एक शोरूम में काम करते हैं।
...आज सुबह से ही झुग्गी-झोपड़ी वालों का झुंड किसानों के तंबुओं पर उमड़ पड़ा। उन्होंने तिरपाल, बांस की लकडिय़ां, लोहे की छड़ें एकत्र की। जिनके पास सामान रखने की जगह नहीं थी तो किसानों ने उनको कुछ रुपए दिए, किसी को कपड़े, किसी को बिस्तर दिया। 

..गरीबों ने बड़े दिल के किसानों को भरे मन से घर को विदा किया.. सब ने कहा- ये देश बने किसानों का और मजलूमों का..
साभार--सोशल मीडिया