अभी २५ मई को जब गाँव बहीन में बाबा रामदेव जी कि जनसभा हुई तो वहाँ दादा कान्हा अमर रहे के नारे लगाये जा रहे थे थे, मैंने भी पहली बार उसी दिन उनका नाम सुना था, फिर कुछ लोगो से मैंने उनके बारे में जाना , उनकी शहादत कि कहानी सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए, सच में हमारा इतिहास शहादतो से भरा पड़ा है, सभी धर्मो और सभी जातियों के लोगो ने कुर्बानियां दी , पर हमारा दुर्भाग्य है कि आज हम उनकी शहादत कि कहानी तो दूर उनका नाम तक नही जान पाते हैं.. ऐसे ही एक वीर शहीद दादा कान्हा कि दास्तान आप सब के साथ शेयर करते हुए गर्व महसूस कर रहा हूँ .....
कान्हा रावत
हिंदुस्तान का इतिहास बलिदानी, साहसी देशभक्त वीरों की वीरगाथा से भरा पडा है. ऐसे वीर जिन्होंने भारतीय संस्कृति, रीति-रिवाजों और स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के निकट वीरभूमि हरियाणा वैदिक सभ्यता नैतिकता, विशाल त्याग, यज्ञों की स्थली तथा विद्वानों की कर्म स्थली रही है. यहां के रणबांकुरों ने समय-समय पर देश की रक्षा व स्वाभिमान के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी.
धर्म बलिदानी कान्हा रावत का जन्म दिल्ली से ६० मील दक्षिण में स्थित रावत जाटों के उद्गम स्थान बहीन गाँव में चौधरी बीरबल के घर माता लाल देवी की कोख से संवत १६९७ (सन १६४०) में हुआ. वह समय भारत में मुग़ल साम्राज्य के वैभव का था. हर तरफ मुल्ले मौलवियों की तूती बोलती थी. कान्हा ने जन्म से ही मुग़लों के अत्याचारों के बारे में सुना था. यही कारण था कि कान्हा को छोटी अवस्था से ही लाठी, भाला, तलवार, ढाल चलाने की शिक्षा दी गई.
पांच गावों (बहीन, नागल जाट, अल्घोप, पहाड़ी, और मानपुर) की एक महापंचायत हुई थी जिसमे कान्हा रावत के अध्यक्षता में निर्णय लिए गए थे -
हम अपना वैदिक हिन्दू धर्म नहीं बदलेंगे.
मुसलमानों के साथ खाना नहीं खायेंगे.
कृषि कर अदा नहीं करेंगे.
रावत पंचायत के निर्णयों की खबर जब औरंगजेब को लगी तो वह क्रोध से आग बबूला हो उठा. उसने अब्दुल नवी सेनापति के अधीन एक बहुत बड़ी सेना बहीन पर आक्रमण के लिए भेजी. सन १६८४ में बहिन गाँव को चारों तरफ से घेर लिया. रावतों और मुग़ल सेना में युद्ध छिड़ गया. रावत जाटों ने मुग़ल सेना के छक्के छुडा दिए. यदि फिरोजपुर झिरका से मुग़लों को नई सैन्य टुकड़ी का सहारा नहीं मिलता तो मैदान रावत जाटों के हाथ रहता. लेकिन मुगलों की बहुसंख्यक, हथियारों से सुसज्जित सेना के आगे शास्त्र-विहीन रावत जाट आखिर कब तक मुकाबला करते. इस युद्ध में पांचों रावत गांवों के अलावा अन्य रावत जाट भी लड़े थे और अनुमानतः २००० से अधिक रावत वीरगति को प्राप्त हुए थे. रावत जाटों के नेता कान्हा रावत को गिरफ्तार कर लिया गया.
कान्हा रावत को जिन्दा जमीन में गाड़ा
सात फ़ुट लम्बे तगड़े बलशाली युवा कान्हा रावत को गिरफ्तार करके मोटी जंजीरों से जकड़ दिया गया. उसके पैरों में बेडी, हाथों में हथकड़ी तथा गले में चक्की के पाट डालकर कैद करके दिल्ली लाया गया. वहां उसको अजमेरी गेट की जेल में बंद कर दिया गया. उसी जेल के आगे गढा खोदा गया. कान्हा को प्रतिदिन उस गढे में गाडा जाता था तथा अमानवीय यातनाएं दी जाती थी लेकिन वह इन अत्याचारों से भी टस से मस नहीं हुआ.
शेर पिंजरे में बंद होकर भी दहाड़ रहा था -
'जिन्दा रहा तो फिर क्रांति की आग सुलगाऊंगा'
रावतों के इतिहास के लेखक सुखीराम लिखते हैं कि - कान्हा रावत के कष्टों की दास्ताँ से निर्दयी औरंगजेब का दिल भी पसीज गया. एक दिन वह प्रात काल की वेला में अजमेरी गेट की जेल गया. कान्हा रावत की हालत देख वह बोला -
"वीर रावत मैं तुम्हारी वीरता का कायल हूँ और तुम्हें माफ़ करना चाहता हूँ. तेरी युवा अवस्था है, घर में बैठी तेरी प्राण प्यारी विरह में रो-रोकर सूख कर कांटा हो गई है. तेरी माँ, बहन-भाई और रिश्तेदार बेहाल हैं. बहुत दिनों से रावतों के घर में दीपक नहीं जले हैं. किसी ने भी भर पेट खाना नहीं खाया है. तुम्हारे जैसा सात फ़ुट का होनहार जवान अपने दिल की उमंगों को साथ लिए जा रहा है. मुझे इसका अफ़सोस है. अरे पगले ! अपने ऊपर और अपनों पर रहम कर. यदि तू मेरी बात मानले तो तुझे मैं जागीर दे सकता हूँ. सेनापति बना सकता हूँ. तेरी मांगी मुराद पूरी हो सकती है. मेरे साथ चल. बाल कटवा, नहा धो और अच्छे कपडे पहन. दोनों साथ मिलकर खाना खयेंगे. अब बहुत हो चूका. तेरी हिम्मत ने मुझे हरा दिया है. अब तो दोस्ती का हाथ बढा दे."
औरंगजेब की बात सुनकर वीर कान्हा रावत ने जवाब दिया था -
"बादशाह तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ है. खाना ही खाना होता, जागीर ही लेनी होती तो यहाँ इस तरह नहीं आता, इतना जान माल का नुकसान नहीं होता. मैंने सुब कुछ सोच विचार कर यह करने का निश्चय किया है. तुम ज्यादा से ज्यादा मुझे फांसी लगवा सकते हो, गोली से मरवा सकते हो या जमीन में दफ़न करवा सकते हो लेकिन मेरे अन्दर विद्यमान स्वाभिमान तथा देश एवं धर्म के प्रति प्रेम को तुम मार नहीं सकते. हाँ यदि तुझे मुझ पर रहम आता है तो बिना शर्त रिहा करदे."
औरंगजेब अपमान का घूँट पीकर चला गया.
कान्हा रावत ने औरंगजेब के साथ खाना खाने से इंकार कर दिया. उसको अपना धर्म त्यागना भी स्वीकार नहीं था. उसने अब्दुन नबी (मुग़ल सेनापति) के विरोध में उठने वाले किसान-आन्दोलन को नंदराम और गोकुला के साथ मिलकर हवा दी थी. इस जाट वीर ने प्राण भय से स्वधर्म और संघर्ष नहीं छोडा था. उसने जजिया कर के खिलाफ डटकर लडाई लड़ी थी.
एक दिन बड़ी मुश्किल से मिलने की इजाज़त लेकर कान्हा का छोटा भाई दलशाह उसे मिलने के लिए आया. उस समय कान्हा के पैर जांघों तक जमीन में दबाये हुए थे तथा हाथ जंजीरों से जकडे हुए थे. कोड़ों की मार से उसका शरीर सूखकर कांटा हो गया था. दलशाह से यह दृश्य देखा नहीं गया तो उसने कान्हा से कहा भाई अब यह छोड़ दे. तब कान्हा तिलमिला उठा और बोला:
"अरे दलशाह यह तू कह रहा है. क्या तू मेरा भाई है. क्या तू रावतों की शान में कायरता का कलंक लगाना चाहता है. मैंने तो सोचा था कि मेरा भाई अब्दुन नबी की मौत की सूचना देने आया है. ताकि मैं शांति से मर सकूं. मैंने तो सोचा था कि मेरे भाई ने मेरा प्रतोशोध ले लिया है. मैंने सोचा था कि तू रौताई (रावत पाल) का कोई हाल सुनाने आया है और मेरा सन्देश लेने आया है. लेकिन तुझे धिकार है. तू यहाँ आने से पहले मर क्यों नहीं गया. तूने मेरी आत्मा को छलनी कर दिया है."
कान्हा का छोटा भाई दलशाह कान्हा को प्रणाम कर माफ़ी मांग कर वापिस गया. कान्हा रावत के छोटे भाई दलशाह ने रावतों के अतिरिक्त उस क्षेत्र के अनेक गावों के जाटों को इकठ्ठा कर अब्दुल नवी पर हमला बोल दिया. यह खबर कान्हा को उसकी मृत्यु से एक दिन पहले मिली. इस खबर से कान्हा को बड़ी आत्मिक शांति मिली. इस घटना के बाद औरंगजेब ने कान्हा रावत पर जुल्म बढा दिए. अंत में चैत्र अमावस विक्रम संवत १७३८ (सन १६८२ /सन १६८४) को वीरवर कान्हा रावत को जिन्दा ही जमीन में गाड दिया. वह देशभक्त हिन्दू धर्म की खातिर शहीद होकर अमरत्व को प्राप्त किया.
कान्हा रावत के बलिदान ने दिल्ली के चारों तरफ बसे जाटों को जगा दिया. चारों और बगावत की ध्वनि गूंजने लगी. यह घटना मुग़ल सल्तनत के हरास का कारण बनी.
जिस स्थान पर कान्हा रावत को जिन्दा गाडा गया था वह स्थान अजमेरी गेट के आगे मौहल्ला जाटान की गली में आज भी एक टीले के रूप में विद्यमान है.
दिल्ली स्थित पहाडी धीरज पर आज भी वह जगह रावतपाडा के नाम से प्रसिद्ध है। कान्हा रावत को विदेशी छतरी को निर्माण कराया, जो आज भी विद्यमान है। रावत पाल के लोगों ने उनकी स्मृति गौशाला का निर्माण कराया, जहां पर हर वर्ष दो दिन का उत्सव मनाया जाता है।
यह वक्त की ही विडम्बना है कि किसी भी राष्ट्रिय स्तर के लेखक ने इस शहीद पर कलम चलाने का प्रयास नहीं किया.. और इतिहास में आज हमे ये पढाया जाता हैं कि जाट लुटेरे थे
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