ब्रिटिश राज द्वारा ऐसी कर और राजस्व व्यवस्था बनायी गयी, जिनसे और आसानी
से यहाँ के संसाधनों को लूटा जा सके। ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनायी गयी जिससे
बंधुआ समाज की स्थापना की जा सके, लोग विचार हीन हो जाएँ और उनकी सवाल करने
की क्षमता खत्म कर दी जाए। भय का ऐसा माहौल बने कि भुखमरी होने पर भी लोग
विद्रोह करने के बारे में ना सोचें. ऐसी थीं उनकी मंशाएं, तो स्वाभाविक है
कि उनके लिए कानून और व्यवस्था के कुछ दूसरे ही मायने स्थापित हो जाते हैं।
न्याय उनकी व्यवस्था का चरित्र हो ही नहीं सकता। एक स्तर पर महसूस होता है
कि स्वतंत्र होने की बाद भी हमने कम से कम व्यवस्था के उस चरित्र को
तिलांजलि नहीं दी। हमने उपनिवेशिक कानूनों को खत्म करने की मंशा ही नहीं
दिखाई। उन्होंने शोषण के लिए दरोगा और पटवारी की व्यवस्था बनाई थी, वह बनी
रही, लोगों की जमीन लूटने के लिए 1894 में भूमि अधिग्रहण कानून बनाया गया
था, वर्ष 2012 तक वह कानून चल रहा है. किसी को सरकार की कोई जानकारी ना मिल
सके या उसका उपयोग न किया जा सके, इसके लिए शासकीय गोपनीयता कानून 1923
में बना, उसे हटाये बिना सूचना के अधिकार का कानून बनाया गया!! आज भी हर
रोज हम देखते हैं कि लोकतंत्र कायम करने का दावा किया गया परन्तु समाज और
लोगों के लिए वह स्थान कम होता गया, जहाँ वे अपने विरोध और असहमति को
अभिव्यक्त कर सकें। जब लोग विरोध करते हैं तो उसे राष्ट्र विरोधी कृत्य
माना जाता है और सजा दी जाती है। सवाल यह है कि उपनिवेशवाद से मुक्त होकर
स्वतंत्र हो जाने का सूचक न्याय आधारित मूल्य नहीं होना चाहिए? क्या कानून
के राज का मतलब स्वतंत्र के बाद भी अपराधी को सम्मान और आम लोगों का दमन ही
होना चाहिए! यदि न्याय को आधार माना जाए तो यह सवाल पूछने का बार-बार मन
करता है कि हम उपनिवेशवाद से कब मुक्त हुए थे?
यूँ तो कानून बनाने का काम एक सहभागी प्रक्रिया के तहत हमारी संसद करती है। सरकार एक विधेयक बनाती है और संसद में पेश करती है। आम तौर पर ये विधेयक संसद की स्थाई समिति को भेज दिए जाते हैं। जहाँ समिति लोगों और संस्था-संगठनों से सुझाव मंगाती है। इनके आधार पर वह विधेयक में बदलाव करती है और संसद को वापस सौंप देती है पर सरकार इस समिति के सुझावों को मानने के लिए बाध्य नहीं होती है, इसलिए जो प्रावधान उसे अपनी सत्ता और नीतियों के माकूल नहीं लगते, उन्हें वह मिटा देती है। संसद में भी ताकत के बल पर ही कानून बनते हैं। यदि सत्तारूढ़ दल बहुमत में है, तो वह जरूरी नहीं कि वह लोगों के अपनी नीतियों के केंद्र में रखे। यहीं से कमजोर कानून की नींव रखी जाती है। चलिए कानून तो मुद्दे पर व्यापक दस्तावेज होता है और क्रियान्वयन और कानून से सम्बंधित ढांचों के निर्माण की बात कानून में नहीं आ पाती है। इन्हें नियमों और प्रक्रिया में शामिल किया जाता है। यहाँ लोगों के साथ दूसरा धोखा होता है। विधेयक की तरह, नियमों को न तो विचार और सुझावों के लिए संसदीय समिति के पास भेजा जाता है, न ही लोगों को अपनी बात कहने का वहां कोई हक ही होता है। नियमों और प्रक्रिया में ऐसे गड्ढे बना कर छोड़े जाते हैं, जिनमे लोग लड़खड़ा कर गिरते रहते हैं. इसमे भी ऐसी व्यवस्थाएं नहीं बनायी जाती हैं, जो अधिकार को न्याय का जामा औढ़ाये। कहने को जन अधिकार के लिए कानून बन जाता है, पर क्रियान्वयन के सूत्र उस सत्ता के पास रह जाते हैं, जो अपनी ताकत के केवल बढाने में विश्वास रखती है। हमारे यहाँ तिहात्तरवें संविधान संशोधन के जरिये सत्ता का विकेंद्रीकरण किया गया और पंचायतों-ग्रामस भा
को अधिकार दिए गए। परन्तु कोई भी पंचायत भ्रष्ट अधिकारी का वेतन नहीं रोक
सकती है, केवल अनुशंसा कर सकती है। अतीत में गाँव राज्य को व्यवस्था चलाने
के लिए संसाधन देती थी, पर अब गाँव के संसाधनों को राज्य अपने खजाने में
रखता है और गाँव उसके सामने हाथ फैलाए खडे़ रहते हैं। अब जीवन के हर पल का
हिसाब सरकार देश की राजधानी में बैठ कर करती है।
हम जानते हैं कि हमारे समाज में जातिगत व्यवस्था है, भेदभाव है, लैंगिक भेदभाव है, छुआछूत है, सामंतवाद है, और यही कारण है कि समाज या सामाजिक ढांचों से अब यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वह समानता और न्याय आधारित व्यवस्था को खड़ा करने की सक्रीय भूमिका निभाएगा। यह समाज अब भुखमरी और कुपोषण से होने वाली मौतों पर मौन रह जाता है, सामने होते बलात्कार को देखते हुए भी संगठित प्रतिरोध नहीं करता है, संसाधन छीन लिए जाते हैं, और वह उनका विरोध करने के बजाये अपने लिए कोई भी विकल्प, जैसे पलायन, खोजने में जुट जाता है, इन परिस्थितियों में राज्य की भूमिका केंद्र में आती है। उससे अपेक्षा की जाती है कि वह असमानता, भेदभाव, शोषण और बहिष्कार को मिटाने के लिए व्यवस्था बनाएगा। इस व्यवस्था का मतलब केवल कानून और नीति बनाना नहीं है। कानून एक व्यवस्था का निर्माण करता है और सिद्धांत यह है कि व्यवस्था को उसके मुताबिक काम करना चाहिए। सामाजिक विसंगतियों को ऐसे कानून के राज के द्वारा समाप्त किया जा सकता है, जो मूल्यों और न्याय की अवधारणा पर बनाए गए हों। नए सन्दर्भों में केवल सरकारी तंत्र में न्याय के चरित्र की बात नहीं है, अब बेंकों, मीडिया,बाजार, उत्पादक तंत्र सहित निजी क्षेत्र में भी न्याय का चरित्र चाहिए अन्यथा वे शोषण के नए खिलाड़ी बन कर स्थापित हो जायेंगे।
कोई भी अधिकार तब तक हासिल नहीं किया जा सकता है या तब तक नहीं दिया जा सकता है, जब तक की उसे लागू करने के लिए संस्थागत, जवाबदेय संस्था और व्यवस्था नहीं बनाई जाती। सबसे पहले कानून ऐसा बनना चाहिए, जो न्याय के साथ अधिकार का सन्देश देता हो, जिसमें निगरानी की साफ और विकेंद्रीकृत व्यवस्था का उल्लेख हो, शिकायत को दर्ज करने और निश्चित समय अवधि में उसके सही निराकरण की व्यवस्था हो, दोषियों के खिलाफ दंड और प्रभावित के लिए मुआवजे का प्रावधान हो, उस कानून को लागू करने के लिए ढांचा बनाया जाय। इन सब कामों के लिए बजट चाहिए, बजट के बिना कानून बेकार है
यूँ तो कानून बनाने का काम एक सहभागी प्रक्रिया के तहत हमारी संसद करती है। सरकार एक विधेयक बनाती है और संसद में पेश करती है। आम तौर पर ये विधेयक संसद की स्थाई समिति को भेज दिए जाते हैं। जहाँ समिति लोगों और संस्था-संगठनों से सुझाव मंगाती है। इनके आधार पर वह विधेयक में बदलाव करती है और संसद को वापस सौंप देती है पर सरकार इस समिति के सुझावों को मानने के लिए बाध्य नहीं होती है, इसलिए जो प्रावधान उसे अपनी सत्ता और नीतियों के माकूल नहीं लगते, उन्हें वह मिटा देती है। संसद में भी ताकत के बल पर ही कानून बनते हैं। यदि सत्तारूढ़ दल बहुमत में है, तो वह जरूरी नहीं कि वह लोगों के अपनी नीतियों के केंद्र में रखे। यहीं से कमजोर कानून की नींव रखी जाती है। चलिए कानून तो मुद्दे पर व्यापक दस्तावेज होता है और क्रियान्वयन और कानून से सम्बंधित ढांचों के निर्माण की बात कानून में नहीं आ पाती है। इन्हें नियमों और प्रक्रिया में शामिल किया जाता है। यहाँ लोगों के साथ दूसरा धोखा होता है। विधेयक की तरह, नियमों को न तो विचार और सुझावों के लिए संसदीय समिति के पास भेजा जाता है, न ही लोगों को अपनी बात कहने का वहां कोई हक ही होता है। नियमों और प्रक्रिया में ऐसे गड्ढे बना कर छोड़े जाते हैं, जिनमे लोग लड़खड़ा कर गिरते रहते हैं. इसमे भी ऐसी व्यवस्थाएं नहीं बनायी जाती हैं, जो अधिकार को न्याय का जामा औढ़ाये। कहने को जन अधिकार के लिए कानून बन जाता है, पर क्रियान्वयन के सूत्र उस सत्ता के पास रह जाते हैं, जो अपनी ताकत के केवल बढाने में विश्वास रखती है। हमारे यहाँ तिहात्तरवें संविधान संशोधन के जरिये सत्ता का विकेंद्रीकरण किया गया और पंचायतों-ग्रामस
हम जानते हैं कि हमारे समाज में जातिगत व्यवस्था है, भेदभाव है, लैंगिक भेदभाव है, छुआछूत है, सामंतवाद है, और यही कारण है कि समाज या सामाजिक ढांचों से अब यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वह समानता और न्याय आधारित व्यवस्था को खड़ा करने की सक्रीय भूमिका निभाएगा। यह समाज अब भुखमरी और कुपोषण से होने वाली मौतों पर मौन रह जाता है, सामने होते बलात्कार को देखते हुए भी संगठित प्रतिरोध नहीं करता है, संसाधन छीन लिए जाते हैं, और वह उनका विरोध करने के बजाये अपने लिए कोई भी विकल्प, जैसे पलायन, खोजने में जुट जाता है, इन परिस्थितियों में राज्य की भूमिका केंद्र में आती है। उससे अपेक्षा की जाती है कि वह असमानता, भेदभाव, शोषण और बहिष्कार को मिटाने के लिए व्यवस्था बनाएगा। इस व्यवस्था का मतलब केवल कानून और नीति बनाना नहीं है। कानून एक व्यवस्था का निर्माण करता है और सिद्धांत यह है कि व्यवस्था को उसके मुताबिक काम करना चाहिए। सामाजिक विसंगतियों को ऐसे कानून के राज के द्वारा समाप्त किया जा सकता है, जो मूल्यों और न्याय की अवधारणा पर बनाए गए हों। नए सन्दर्भों में केवल सरकारी तंत्र में न्याय के चरित्र की बात नहीं है, अब बेंकों, मीडिया,बाजार, उत्पादक तंत्र सहित निजी क्षेत्र में भी न्याय का चरित्र चाहिए अन्यथा वे शोषण के नए खिलाड़ी बन कर स्थापित हो जायेंगे।
कोई भी अधिकार तब तक हासिल नहीं किया जा सकता है या तब तक नहीं दिया जा सकता है, जब तक की उसे लागू करने के लिए संस्थागत, जवाबदेय संस्था और व्यवस्था नहीं बनाई जाती। सबसे पहले कानून ऐसा बनना चाहिए, जो न्याय के साथ अधिकार का सन्देश देता हो, जिसमें निगरानी की साफ और विकेंद्रीकृत व्यवस्था का उल्लेख हो, शिकायत को दर्ज करने और निश्चित समय अवधि में उसके सही निराकरण की व्यवस्था हो, दोषियों के खिलाफ दंड और प्रभावित के लिए मुआवजे का प्रावधान हो, उस कानून को लागू करने के लिए ढांचा बनाया जाय। इन सब कामों के लिए बजट चाहिए, बजट के बिना कानून बेकार है
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