कविता का एक एक शब्द गहराई से समझे।
गर्व था भारत-भूमि को
कि महावीर की माता हूँ।।
राम-कृष्ण और नानक- बुद्ध
जैसे वीरो की यशगाथा हूँ॥
कंद-मूल खाने वाले बुद्ध से
मांसाहारी भी डरते थे।।
पोरस जैसे शूर-वीर को
नमन 'सिकंदर' करते थे॥
चौदह वर्षों तक वन में
जिसका धाम था।।
मन-मन्दिर में बसने
वाला शाकाहारी राम था।।
चाहते तो खा सकते थे
वो मांस पशु के ढेरो में।।
लेकिन उनको प्यार मिला
' शबरी' के झूठे बेरो में॥
चक्र सुदर्शन धारी थे
गोवर्धन पर भारी थे॥
मुरली से वश करने वाले
'गिरधर' शाकाहारी थे॥
पर-सेवा, पर-प्रेम का परचम
चोटी पर फहराया था।।
निर्धन की कुटिया में जाकर जिसने मान बढाया था॥
सपने जिसने देखे थे
मानवता के विस्तार के।।
नानक जैसे महा-संत थे
वाचक शाकाहार के॥
उठो जरा तुम पढ़ कर
देखो गौरवमयी इतिहास को।।
आदम से गाँधी तक फैले
इस नीले आकाश को॥
दया की आँखे खोल देख लो
पशु के करुण क्रंदन को।।
इंसानों का जिस्म बना है
शाकाहारी भोजन को॥
अंग लाश के खा जाए
क्या फ़िर भी वो इंसान है?
पेट तुम्हारा मुर्दाघर है
या कोई कब्रिस्तान है?
आँखे कितना रोती हैं
जब उंगली अपनी जलती है।।
सोचो उस तड़पन की हद
जब जिस्म पे आरी चलती है॥
बेबसता तुम पशु की देखो
बचने के आसार नही।।
जीते जी तन काटा जाए,
उस पीडा का पार नही॥
खाने से पहले बिरयानी,
चीख जीव की सुन लेते।।
करुणा के वश होकर तुम भी शाकाहार को चुन लेते॥
शाकाहारी बनो...!
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
Thursday, August 28, 2014
शाकाहारी बनो
क्या आज की नारी स्वतंत्र और सशक्त है?
बहुत अच्छा लगता है, जब टीवी चलाते ही सामने एक सुन्दर सी बाला स्वागत करती हुई दिखाई दे जाती है. मन कोल्ड ड्रिंक पीने को मचल उठता है, जब एक विश्व सुंदरी अपने सुन्दर होठों से लगाये हुए कहती है, ‘पियो सर उठा के’. और समाचार और भी आकर्षक लगने लगते हैं, जब उन्हें कोई दमकता चेहरा, सुरीली आवाज में सुना रहा होता है.
साथ ही साथ मैं इस सुखद भ्रम में भी डूब जाता हूँ, कि स्त्री सच में सशक्त हो रही है. आज कोई कोना नहीं बचा, जहाँ स्त्री ने अपनी उपस्थिति ना दर्ज की हो.
ऐसे ही एक सुखद भ्रम में खोया, टीवी पर बोल रही बाला को सुन ही रहा था, कि अचानक ठिठक सा गया. एक अर्धनग्न सी युवती, समंदर किनारे किसी बंद, पानी की बोतल का प्रचार कर रही थी. मैं उसकी अवस्था को देखकर हतप्रभ था. समझ नहीं पा रहा था, कि यह कौन से ‘पानी’ का प्रचार है..!!? क्या यह सच में उसी ‘पानी’ का प्रचार है, जो उस बोतल में बंद है, या फिर यह उस ‘पानी’ का प्रचार है, जो इस ‘पानी’ की आड़ में ‘पानी-पानी’ कर दिया गया.
यह कैसी सशक्तता है? क्या स्त्री इसी सशक्तता के लिए बेचैन थी? क्या यही प्राप्ति उसका अंतिम लक्ष्य है?
एक कटु सत्य यही है कि स्त्री आज भी सशक्त नहीं है, बल्कि वह पुरुष के हाथों सशक्तता के भ्रम में पड़कर स्वयं को छल रही है.
‘हे विश्वसुन्दरी, तुमने क्या खोया, क्या पाया है…
तन को बाजारों में बेचा, फिर तुमने क्या कमाया है….’
स्त्री देह के छोटे होते वस्त्र और उसकी सुन्दरता को मिलते बड़े पुरस्कार…...यह सब एक रणनीति रही है, इस पुरुष समाज की…स्त्री को छलने के लिए….दुर्भाग्य यही है, कि स्त्री स्वयं को उन्ही बड़े पुरस्कारों के आधार पर जांचने लगी. स्त्री को अपनी सुन्दरता का प्रमाण उन पुरस्कारों में दिखाई देने लगा…
जिस स्त्री को अपने आभूषणों में सुन्दरता दिखती थी, उसे अब अपनी अर्धनग्न देह ज्यादा सुन्दर लगने लगी. और रही बात पुरुष समाज की, तो वह तो सदा से यही चाहता रहा है. जो यह समाज तमाम अत्याचारों और बल के बाद भी नहीं कर पाया था, कुछ बुद्धिजीवियों ने इतनी सरलता से उसे कर दिखाया, कि स्त्री स्वयं ही अपने वस्त्र उतार बैठी.
कन्हैया सोच रहे हैं, कि शायद कोई द्रौपदी अपने चीर की रक्षा के लिए आवाज देगी… लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है, क्योंकि यहाँ कोई दुशासन चीर हरण कर ही नहीं रहा है, यहाँ तो अब स्वयं द्रौपदी ही अपने चीर को त्याग रही है, तब फिर भला कन्हैया भी क्या करें?
सरकार की दृष्टि में सशक्तता का प्रमाणपत्र अब बार या पब में जाकर ही मिल सकता है. यह सब कुछ मात्र राजनीति का हिस्सा नहीं है. यह एक बहुत बड़ी रणनीति है, समाज के अन्दर से मनुष्यता और संस्कृति को मारने की.
पिछले दशक में अचानक ही हिन्दुस्तानी सुंदरियों को विश्व-सुंदरी और ब्रह्माण्ड-सुंदरी का ताज मिलने के पीछे उनकी सुन्दरता को पुरस्कृत करने का ध्येय कदापि नहीं था. इसके पीछे खेल था, यहाँ से संस्कृति को पुरस्कारों के जरिये ख़त्म कर देने का. और वह इसमें सफल भी रहे. अब हर रोज कहीं न कहीं गली-सुंदरी, मोहल्ला-सुंदरी, और पार्टी-सुंदरी के ताज मिलते रहते हैं.
स्त्री की सुन्दरता के दृष्टिकोण को बदल दिया गया. अब ‘न्यूनतम वस्त्र, अधिकतम आधुनिक सुन्दरता’ के द्योतक बना दिए गए.चलचित्रों (फिल्मों) का कैमरा अब अभिनेत्री की ‘कजरारी आँखों’ से उतर कर, उसकी ‘बलखाती कमर’ पर टिक चुका है. अब अभिनेता-अभिनेत्री की मुलाकात किसी बगीचे में, पेडों की ओट में नहीं, बल्कि समंदर किनारे किसी ‘बीच-पार्टी’ में होती है. जहाँ स्विमसूट में अभिनेत्री का एक दृश्य आवश्यक हो गया है.
दुर्भाग्य से स्त्री इसे ही अपनी स्वतंत्रता और सशक्तता का पैमाना मानने लगी है.
समय रहते स्त्री को इस अवधारणा से बाहर निकल कर अपनी सर्वोच्चता और पूर्णता की प्राप्ति के लिए प्रयास शुरू करना होगा. जिस दिन हर स्त्री अपनी पूर्णता को स्वीकार कर अपूर्ण पुरुष की समानता के भ्रमजाल से बाहर आ जायेगी, वह पूर्ण स्वतंत्र और सशक्त हो उठेगी. तब कोई दुसाशन ना चीर हरण का प्रयास करेगा, ना ही कृष्ण को चीर बचाने की चिंता होगी……
आखिर कृष्ण के लिए और भी तो काम हैं….