Sunday, July 7, 2019

क्रांतिकारी की चप्पल




वो अलस्सुबह दस बजे उठता है। मुँह-हाथ धोता है, जिसे वो नहाना हीसमझता है। केतली-भर चाय बना बिस्तर पर बैठता है। पहले अखबार पढ़ता है। फिर दर्शन का रुख करता है। गुरजेफ से लेकर जिब्रान तक सब पढ़ता है। वो पढ़ता जाता है और उसका तापमान बढ़ता जाता है। 

दोपहर होते-होते भुजाएँ फड़कने लगी हैं। भेजे के कुकर में विचारों की बिरयानी हद से ज्यादा उबल चुकी है, रग-रग में सीटियाँ बज उठी हैं। उसे उलटी करनी है। लेकिन कहाँ जाए? ढक्कन कैसे खोले ? दोस्त तो सभी नौकरियों (जो उसकी नजर में छोटी) पर गए हैं।

 हताशा में वो टीवी चलाता है। खबरिया चैनल पर रुकता है। जहाँ ‘आजादी से हासिल’ पर चर्चा हो रही है। इसे खुराक मिल गई। लेकिन दो मिनट में तीनों विचारक खारिज। ये सब किताबी बातें हैं, इनमें से कोई जमीनी हकीकत से वाकिफ नहीं। वो गुस्से में 7388 पर एसएमएस करता है। सोचता है, एंकर अभी मैसेज पढ़ कहेगा—वाह! क्या कसीली बात लिखी है। वो इंतजार कर रहा है, बिना जाने कि ये रिपीट टेलिकास्ट है! 

इस बीच बहस बिजली समस्या की तरफ मुड़ती है। वो सीधा होता है, वॉल्यूम बढ़ाता है...सत्यानाश...तभी बिजली चली जाती है। लानत है...हासिल की बात करते हैं, ‘ये’ हासिल है...बिजली की समस्या पर चर्चा सुनने लगो तो बिजली चली जाती है! 

ईश्वर, तू ही बता, आखिर क्या कसूर था मेरा? तेंदूखेड़ा की बजाय मैं टोरंटो में क्यों नहीं जन्मा? बर्गर की जगह भिंडी क्यों लिखी मेरी किस्मत में? लेकिन तभी उसे ‘रंग दे बसंती’ का डायलॉग याद आता है—सिस्टम से समस्या है तो शिकायत मत करो, उसे बदलने की कोशिश करो। वो खड़ा होता है...सोचता है...बहुत हुआ...मैं जा रहा हूँ अज्ञानता का अंधकार मिटाने, ज्ञान के दीप जलाने, होम का मोह छोड़, दुनिया के लिए खुद को होम करने।

लेकिन, ये क्या...कहाँ हो तुम...यहीं तो थी...कहाँ चली गई...यहाँ-वहाँ हर जगह ढूँढ़ा...नहीं मिल रही...खयाल आया...कहीं छोटा भाई तो नहीं पहन गया...हाँ, वही पहन गया होगा...उसे तो मैं... 

देखते-ही-देखते माहौल और मूड बदलने लगा है। देश को बदल देने की ‘महत्त्वाकांक्षा’, भाई को देख लेने की ‘आकांक्षा’ में तबदील हो गई है। क्रांतिकारी का भाई, जो जरा नीचे दही लेने गया है, नहीं जानता कि उसने देश की उम्मीदों की दही कर दी। नाउम्मीद हुआ क्रांतिकारी फिर से बिस्तर पर जा लेटा है। तापमान गिरने लगा है, जोश भाप बन उड़ चुका है। और इस मुल्क की तकदीर ‘एक बार फिर’ इसलिए नहीं बदल पाई क्योंकि क्रांतिकारी को उसकी चप्पल नहीं मिली! 

HUM SAB FAKE HAIN
BY NIRAJ BADHWAR
(FROM KINDLE)