Sunday, March 31, 2013

हमारे महान पूर्वज

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हमारे प्राचीन पूर्वज बीसवीं शताब्दी से उतना ही दूर थे जितना कि सुपरसोनिक से बैलगाड़ी और रफ़्तार भी वही| हर चीज़ ढीली ढली थी, ये लोग देखने में गंवार लगते थे | दाढ़ी बही हुई बाल बिखरे हुए, विचार उलझे हुए| पर वे बीसवीं शताब्दी के लोगों कि तरफ ऊँगली उठा कर कह रहे थे कि देखो इन मूर्खो को देखो| वे अधिक खाने के लोभ में अपने समुन्द्र और आसमान तक को खा जाते हैं, वे अपने भविष्य को खाते जा रहे हैं,और, फिर भी अपने को विज्ञानी समझते हैं| उनको इस तरह कहने का अधिकार भी था , क्योंकि उनकी नदियाँ सिर्फ बरसात में ही मैली होती थी, उनका आसमान सिर्फ आंधी चलने पर ही मैला होता था, उनके विचार सिर्फ आवेग कि प्रखरता में ही मैले होते थे, उनका शरीर सिर्फ काम करते समय ही मैला होता था| उनकी आत्मा तो मैली होती ही नहीं थी| वे हँसते थे तो हंसी में उनका आह्लाद झलकता था, दर्प झलकता था, व्यंग्य टपकता था, पर मन कि मलिनता नहीं झलकती थी| वह उनके दिल दिमाग में कहीं थी ही नहीं|

वो कम दुखी होते थे क्यूंकि उनकी दुःख कि परिभाषा कुछ अलग थी| हमारी परिभाषा के बहुत से दुखों को वे चुप चाप पी जाते थे, मानो वे दुखी हों ही नहीं| पर जब दुःख उनकी परिभाषा के अनुसार भी दुःख बन जाता था तो उससे आंसुओं के स्थान पर दर्शन टपकने लगता था| 
उनके चेहरे पर ज्ञान तेज और तुष्टि बन कर चमकता था|उनकी जरूरतें बहुत कम थी वे सब कुछ अपने लिए नहीं चाहते थे| पेट भरने के बाद उनकी भूख तेज नहीं होती थी| वे बहुत कम चीजों से डरते थे, बहुत अधिक चीजों पर भरोसा करते थे और घृणा तो किसी भी चीज़ से नहीं करते थे|
वे कुछ जानने के लिए नहीं सोचते थे| जाने हुए का आनंद उठाने के लिए सोचते थे| उसे जीवन में उतरने के लिए सोचते थे|सोचते रहने के लिए सोचते थे| उन लोगों को दुनिया कि हर बात मालूम थी| जो हो चुकी थी वह भी, जो होने वाली थी वह भी और जो होने वाली थी वह भी , जो नहीं हो सकती थी वह भी| उनकी आँखों के आगे तीनों काल और सातों लोक पलक झपकते ही खुल जाते थे|
देखने का उनका तरीका भी कुछ कम अजीब नहीं था| हम कुछ देखने के लिए आँखे फाड़ फाड़ कर , चश्मे और दूरबीन लगा कर देखते हैं और वे देखने के लिए आँखे बंद कर लेते हैं| उनका मानना था कि ब्रह्माण्ड बाहर नही है | सारा ब्रह्माण्ड उनके भीतर भरा हुआ है| काल उनके भीतर छुपा हुआ है|बाहर तो मात्र उसकी छांया है| यह आसान सी बात भी इतनी गूढ़ थी कि इसे समझने के लिए गुरु का होना और उसके मुंह से इसे सुनना जरुरी था| उनकी आँखें कुछ इस तरह बनी थी कि उनकी पुतलियाँ पलक झपकते ही बाहर से भीतर कि तरफ लौट जाती थी और कोई चीज़ दुनिया में कहाँ है, क्यों है, है या नहीं है,होगी या नहीं होगी, यह सब उन्हें दिखाई देने लगता था |
वे अपनी दुनिया कि चिंता ना करते हुए भी अपनी दुनिया से अधिक हमारी दुनिया के बारे में सोच रहे थे- पर्यावरण के ध्वंस पर, प्राकर्तिक साधनों के अपव्यय पर, उपभोक्ता संस्कृति कि विकृतियों पर, विज्ञान के पागलपन पर, मानव मूल्यों के ह्रास पर, संवेदन शून्यता कि विडंबना पर और भाषा के दुष्प्रयोग पर| इस दृष्टि से वे आज के महान से महान वैज्ञानिक की तुलना में भी अधिक दूरदर्शी थे|
वे कह रहे थे कि संसार में ऐसा तो कुछ है ही नहीं जिसमे ईश्वर का निवास न हो|उसे पाने के लिए किसी देवालय या मस्जिद या गुरूद्वारे या गिरजा में जाने कि जरुरत नहीं है| इसके लिए सच्चा मानव प्रेम ही काफी है| पर यह मानव प्रेम खोखला शब्द नहीं है| यह तुम्हारे आचार से जुड़ा है और इस आचार का एक महत्वपूर्ण पक्ष आर्थिक है| तुम त्यागपूर्वक भोग करो| अपने पास अतिरिक्त संचय न करो| लोभ में अंधे न बनो| पैसा किसी का हुआ ही नहीं है| 

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