Saturday, January 11, 2014

लाल बहादुर शास्त्री।

साल 1965 में भारत के इतिहास की वो घड़ी,
वो समझौता जिससे देश की आन बान शान
जुड़ी थी लेकिन हुआ कुछ इतना शर्मनाक कि शायद
वो इतिहास का कभी न भूले जाने वाला पन्ना बन कर
रह गया एक ऐसा नेता देश ने खोया जो शायद
कभी देश को चिराग लेकर ढूंढने से
भी नहीं मिलेगा जिसके बारे में किसी ने सोचा भी न
था कि देश का वो छोटे कद का लेकिन देश की नब्ज
को समझने वाला प्रधानमंत्री जो ताशकंद
गया था भारत की शान को बुलंदियों पर पहुंचाने के
लिए, लेकिन गलत मंसूबे लिए कुछ सियासदानों ने उसे
फिर दोबारा भारत की धरती पर ज़िदा कदम
ही नहीं रखने दिया जी हां आपने सही सोचा यहां मैं
बात कर रहा हूं देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर
शास्त्री की जिन्होंने 1965 का वो युद्ध जो लाल
बहादुर की बहादूरी की बदौलत और सूझ बूझ
की वजह से भारत लगभग जीत चुका था और लाहौर
तक हमारी सेना पूरे जोश के साथ घुस
चुकी थी लेकिन कुछ सियासी चालों में फंसकर देश के
अंदर बैठे कुछ गद्दारों की नापाक मंसूबों ने
पासों को पलटने पर मजबूर बना दिया जिसके तहत
सामने आया ताशकंद का वो समझौता जिसे देश
का कोई नागरिक नहीं चाहता था हर किसी का एक
ही सपना था कि जो पाकिस्तान रुपी टुकड़ा भारत ने
खोया है उसे फिर दोबारा भारत में मिला लिया जाए,
जिस पर खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर
शास्त्री भी अमल चाहते थे। लाल बहादुर
की बहादुरी के बारे में कहा जाता है कि जब
पाकिस्तान ने 1965 में शाम को 7:30 बजे हवाई
हमला कर दिया तो राष्ट्रपति ने आपातकालीन बैठक
बुलाई सेना अध्यक्षों ने पुछा कि बताइए
क्या करना है तो शास्त्री जी का सिर्फ एक
ही जबाव था कि आप देश की रक्षा करिए हमें
बताइए हमें क्या करना है और साथ ही एक
ऐतिहासिक नारा भी दिया “जय जवान जय किसान”
और जब युद्ध की ललकार पाकिस्तान की नीवें हिलाने
लगीं तो कुछ गद्दारों ने अपनी सियासी चालें
खेलना शुरु कर दिया और जैसे ही लाहौर के हवाई
अड्डे पर भारत की सेना पहुंचने
वाली थी कि तभी अमेरिका ने चाल के मद्देनज़र युद्ध
रोकने के लिए कहा। उसकी दलील थी कि युद्ध थोड़े
दिन के लिए टाल दिया जाए ताकि लाहौर में रह रहे
कुछ अमेरिकी नागरिक वहां से निकल जाएं जिसके
तहत रुस और अमेरिका ने युद्धविराम के लिए रुस के
ताशकंद में एक समझौता बुला लिया लेकिन अगर कुछ
इतिहासकारों की मानें तो लाल बहादुर
शास्त्री ताशकंद जाना ही नहीं चाहते थे लेकिन देश
के ही कुछ गद्दार नेताओं ने देश के अंदर ऐसा माहौल
पैदा किया कि लाल बहादुर शास्त्री को मजबूरन
ताशकंद जाने का फैसला मंजूर करना पड़ा ये बात सच
है कि भारत युद्ध जीत चुका था और दो तीन दिनों में
पूरा पाकिस्तान जीत लेता लेकिन नियति को कुछ और
ही मंजूर था हमारे देश का वो लाल जब ताशकंद
गया तो उसे ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर करने के
लिए कहा गया तो उसने दो टूक शब्दों में कह
दिया कि “भारत युद्ध में जीता हुआ हिस्सा वापस
नहीं करेगा” । जिसके बाद दबाव भी शास्त्री जी पर
डाला गया लेकिन उन्होंने कह दिया कि उनके जीवित
रहते जीता हुआ हिस्सा किसी भी कीमत पर वापस
नहीं होगा देश को उनके इस फैसले से बड़ा गर्व हुआ
उस भारत के बहादुर सच्चे सेवक पर, लेकिन
किसी को क्या पता था कि सियासी पैतरें खुद
शास्त्री जी की गर्दन दबाने पर लगे हुए हैं जिस दिन
शास्त्री जी ने हस्ताक्षर किए उसी रात
को शास्त्री जी की मौत की खबर भारत को दे दी गई
तो पूरा भारत वाकई स्तब्ध रह गया, लेकिन तब एक
और झटका लगा जब खुद भारत सरकार के हवाले से
कहा गया कि शास्त्री जी को हार्टअटैक पड़ा है
लेकिन उनकी पत्नी की मानें तो उनका शरीर बिल्कुल
नीला पड़ा हुआ था उनका कहना था कि उनके
पति को ज़हर दिया गया है लेकिन रुस में हुए उनके
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट का सच
तो छुपा दिया गया लेकिन खुद उनके ही देश भारत में
उनकी मौत की जांच पड़ताल के बजाए उनकी मौत
का सच जानने के लिए पोस्टमार्टम तक
नहीं कराया गया जिसके बाद सवाल भी उठे कि भारत
आखिर सच क्यों छिपाना चाहता है
ऐसा भी बताया जाता है कि रुस ने भारत
को पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी भेजी थी लेकिन उसे
आवाम को नहीं दिखाया गया। आखिर क्यों अपने
ही देश में उनकी मौत का सच छिपा दिया गया जिसके
संबंध में दलील दी गई कि ये अन्तर्राष्ट्रीय संबंध
की वजह से किया जा रहा है देश के लिए
इतनी शर्मनाक घटना लेकिन ऐसा बयान वाकई देश
को झकझोरने वाला था लेकिन शास्त्री जी की मृत्यू
के बाद कार्यवाहक के तौर पर गुलजारी लाल
नंदा को प्रधानमंत्री बनाया गया जिसके बाद
इंदिरा गांधी सत्ता में आई उनके रुस से बहुत अच्छे
संबंध थे इस वजह से भी देश को आजतक
शास्त्री जी की मौत का सच सुनने को नहीं मिला और
अब शास्त्री जी की मौत का रहस्य सिर्फ एक
कभी न सुलझने वाली पहेली बनकर ही रह गया। और
देश के सियासतदानों की उस
गल्ती का खामियाजा आज भी देश को उठाना पड़ा।

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