Saturday, May 4, 2013

जन गण मन की कहानी




जन गण मन की कहानी ......................................
सन 1911 तक भारत की राजधानी बंगाल हुआ करता था। सन1905 में जब बंगाल विभाजन को लेकर अंग्रेजो के खिलाफ बंग-भंग आन्दोलन के विरोध में बंगाल के लोग उठ खड़े हुए तो अंग्रेजो ने अपने आपको बचाने के लिए के कलकत्ता से हटाकर राजधानी को दिल्ली ले गए और1911 में दिल्ली को राजधानी घोषित करदिया। पूरे भारत में उस समय लोग विद्रोह से भरे हुए थे तो अंग्रेजो ने अपने इंग्लॅण्ड के राजा को भारत आमंत्रित किया ताकि लोग शांत हो जाये। इंग्लैंड का राजा जोर्ज पंचम 1911में भारत में आया। रविंद्रनाथ टैगोर पर दबाव बनाया गया कि तुम्हे एक गीत जोर्ज पंचम के स्वागत में लिखना ही होगा।
उस समय टैगोर का परिवार अंग्रेजों के काफी नजदीक हुआ करता था, उनके परिवार के बहुत से लोग ईस्टइंडिया कंपनी के लिए काम किया करते थे,उनके बड़े भाई अवनींद्र नाथ टैगोर बहुत दिनों तक ईस्ट इंडिया कंपनी के कलकत्ता डिविजन के निदेशक (Director) रहे। उनके परिवार का बहुत पैसा ईस्ट इंडिया कंपनी में लगा हुआ था। और खुद रविन्द्र नाथ टैगोरकी बहुत सहानुभूति थी अंग्रेजों के लिए। रविंद्रनाथ टैगोर ने मन से या बेमन से जो गीत लिखा उसके बोल है "जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता"। इस गीत के सारे के सारे शब्दों में अंग्रेजी राजा जोर्ज पंचम का गुणगान है, जिसका अर्थ समझने पर पता लगेगा कि ये तो हकीक़त में ही अंग्रेजो की खुशामद में लिखा गया था।
इस राष्ट्रगान का अर्थ कुछ इस तरह से होता है "भारत के नागरिक, भारत की जनता अपने मन से आपको भारत का भाग्य विधाता समझती है और मानती है। हे अधिनायक (Superhero) तुम्ही भारत के भाग्य विधाता हो। तुम्हारी जय हो ! जय हो ! जय हो ! तुम्हारे भारत आने से सभी प्रान्त पंजाब, सिंध,गुजरात, मराठा मतलब महारास्त्र, द्रविड़ मतलब दक्षिण भारत, उत्कल मतलब उड़ीसा, बंगाल आदि और जितनी भी नदिया जैसे यमुना और गंगा ये सभी हर्षित है,खुश है, प्रसन्न है ,तुम्हारा नाम लेकर ही हम जागते है और तुम्हारे नाम का आशीर्वाद चाहते है। तुम्हारी ही हम गाथा गाते है। हे भारत के भाग्य विधाता (सुपर हीरो ) तुम्हारी जय हो जय हो जय हो। "
जोर्ज पंचम भारत आया 1911 में और उसके स्वागत में ये गीत गाया गया। जब वो इंग्लैंड चला गया तो उसने उस जन गण मन का अंग्रेजी में अनुवाद करवाया। क्योंकि जब भारत में उसका इस गीत से स्वागत हुआ था तब उसके समझ में नहीं आया था कि ये गीत क्यों गाया गया और इसका अर्थ क्या है। जब अंग्रेजी अनुवाद उसने सुना तो वह बोला कि इतना सम्मान और इतनी खुशामद तो मेरी आज तक इंग्लॅण्ड में भी किसी ने नहीं की। वह बहुत खुश हुआ। उसने आदेश दिया कि जिसने भी ये गीत उसके (जोर्ज पंचम के) लिए लिखा है उसे इंग्लैंड बुलाया जाये।रविन्द्र नाथ टैगोर इंग्लैंड गए। जोर्ज पंचम उस समय नोबल पुरस्कार समिति का अध्यक्ष भी था।
उसने रविन्द्र नाथ टैगोर को नोबल पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला किया। तो रविन्द्र नाथ टैगोर ने इस नोबल पुरस्कार को लेने से मना कर दिया। क्यों कि गाँधी जी ने बहुत बुरी तरह सेरविन्द्रनाथ टेगोर को उनके इस गीत के लिए खूब डांटा था। टैगोर ने कहा की आप मुझे नोबल पुरस्कार देना ही चाहते हैं तो मैंने एक गीतांजलि नामक रचना लिखी है उस पर मुझे दे दो लेकिन इस गीत के नाम पर मत दो और यही प्रचारित किया जाये क़ि मुझे जो नोबेल पुरस्कार दिया गया है वो गीतांजलि नामक रचना के ऊपर दिया गया है। जोर्ज पंचम मान गया और रविन्द्र नाथ टैगोर को सन 1913 में गीतांजलि नामक रचना के ऊपर नोबल पुरस्कार दिया गया।
रविन्द्र नाथ टैगोर की ये सहानुभूति ख़त्म हुई 1919 में जब जलिया वाला कांड हुआ और गाँधी जी ने लगभग गाली की भाषा में उनको पत्र लिखा और कहा क़ि अभी भी तुम्हारी आँखों से अंग्रेजियत का पर्दा नहीं उतरेगा तो कब उतरेगा, तुम अंग्रेजों के इतने चाटुकार कैसे हो गए, तुम इनके इतने समर्थक कैसे हो गए ? फिर गाँधी जी स्वयं रविन्द्र नाथ टैगोर से मिलने गए और बहुत जोर से डाटा कि अभी तक तुम अंग्रेजो की अंध भक्ति में डूबे हुए हो ? तबजाकर रविंद्रनाथ टैगोर की नीद खुली। इस काण्ड का टैगोर ने विरोध किया और नोबल पुरस्कार अंग्रेजी हुकूमत को लौटा दिया। सन1919 से पहले जितना कुछ भी रविन्द्र नाथ टैगोर ने लिखा वो अंग्रेजी सरकार के पक्ष में था और 1919 के बाद उनके लेख कुछ कुछअंग्रेजो के खिलाफ होने लगे थे।
रविन्द्र नाथ टेगोर के बहनोई, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी लन्दन में रहते थे और ICS ऑफिसर थे। अपने बहनोई को उन्होंने एक पत्र लिखा था (ये1919 के बाद की घटना है) । इसमें उन्होंने लिखा है किये गीत 'जन गण मन'अंग्रेजो के द्वारा मुझ पर दबाव डलवाकर लिखवाया गया है। इसके शब्दों का अर्थ अच्छा नहीं है। इस गीत को नहीं गाया जाये तो अच्छा है। लेकिन अंत में उन्होंने लिख दिया कि इस चिठ्ठी को किसी को नहीं दिखाए क्योंकि मैं इसे सिर्फआप तक सीमित रखना चाहता हूँ लेकिन जब कभी मेरी म्रत्यु हो जाये तो सबको बता दे। 7 अगस्त1941 को रबिन्द्र नाथ टैगोर की मृत्यु के बाद इस पत्र को सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने ये पत्र सार्वजनिक किया, और सारे देश को ये कहा क़ि ये जन गन मन गीत न गाया जाये।
1941 तक कांग्रेस पार्टी थोड़ी उभर चुकी थी। लेकिन वह दो खेमो में बट गई। जिसमे एक खेमे के समर्थक बाल गंगाधर तिलक थे और दुसरे खेमे में मोती लाल नेहरु थे। मतभेद था सरकार बनाने को लेकर। मोती लाल नेहरु चाहते थे कि स्वतंत्र भारत की सरकार अंग्रेजो के साथ कोई संयोजक सरकार (Coalition Government)बने। जबकि गंगाधर तिलक कहते थे कि अंग्रेजो के साथ मिलकर सरकार बनाना तो भारत के लोगों को धोखा देना है। इस मतभेद के कारण लोकमान्य तिलक कांग्रेस से निकल गए और उन्होंने गरम दल बनाया। कोंग्रेस के दो हिस्से हो गए। एक नरम दल और एक गरम दल।
गरम दल के नेता थे लोकमान्य तिलक जैसे क्रन्तिकारी। वे हर जगह वन्दे मातरम गाया करते थे। और नरम दल केनेता थे मोती लाल नेहरु (यहाँ मैं स्पष्ट कर दूँ कि गांधीजी उस समय तक कांग्रेस की आजीवन सदस्यता से इस्तीफा दे चुके थे, वो किसी तरफ नहीं थे,लेकिन गाँधी जी दोनों पक्ष के लिए आदरणीय थे क्योंकि गाँधी जी देश के लोगों के आदरणीय थे)। लेकिन नरम दल वाले ज्यादातर अंग्रेजो के साथ रहते थे। उनके साथ रहना,उनको सुनना, उनकी बैठकोंमें शामिल होना। हर समय अंग्रेजो से समझौते में रहते थे। वन्देमातरम से अंग्रेजो को बहुत चिढ होती थी। नरम दल वाले गरम दल को चिढाने के लिए 1911 में लिखा गया गीत "जन गण मन" गाया करते थे और गरम दल वाले "वन्दे मातरम"।
नरम दल वाले अंग्रेजों के समर्थक थे और अंग्रेजों को ये गीत पसंद नहीं था तो अंग्रेजों के कहने पर नरम दल वालों ने उस समय एक हवा उड़ा दी कि मुसलमानों को वन्दे मातरम नहीं गाना चाहिए क्यों कि इसमें बुतपरस्ती (मूर्ति पूजा) है। और आप जानते है कि मुसलमान मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी है। उस समय मुस्लिम लीग भी बन गई थी जिसके प्रमुखमोहम्मद अली जिन्ना थे। उन्होंने भी इसका विरोध करना शुरू कर दिया क्योंकि जिन्ना भी देखने भर को (उस समय तक) भारतीय थे मन,कर्म और वचन से अंग्रेज ही थे उन्होंने भीअंग्रेजों के इशारे पर ये कहना शुरू किया और मुसलमानों को वन्दे मातरम गाने से मना कर दिया। जब भारत सन 1947 में स्वतंत्र हो गया तो जवाहर लाल नेहरु ने इसमें राजनीति कर डाली। संविधान सभा की बहस चली। संविधान सभा के 319 में से 318 सांसद ऐसे थे जिन्होंने बंकिम बाबु द्वारा लिखित वन्देमातरम को राष्ट्र गान स्वीकार करने पर सहमति जताई।
बस एक सांसद ने इस प्रस्ताव को नहीं माना। और उस एक सांसद का नाम था पंडित जवाहर लाल नेहरु। उनका तर्क था कि वन्दे मातरम गीत से मुसलमानों के दिल को चोट पहुचती है इसलिए इसे नहीं गाना चाहिए (दरअसल इस गीत से मुसलमानों को नहीं अंग्रेजों के दिल को चोट पहुंचती थी)। अब इस झगडे का फैसला कौन करे, तो वे पहुचे गाँधी जी के पास। गाँधी जी ने कहा कि जन गन मन के पक्ष में तो मैं भी नहीं हूँ और तुम (नेहरु ) वन्देमातरम के पक्ष में नहीं हो तो कोई तीसरा गीत तैयार किया जाये। तो महात्मा गाँधी ने तीसरा विकल्प झंडा गान के रूप में दिया "विजयी विश्व तिरंगा प्यारा झंडा ऊँचा रहे हमारा"। लेकिन नेहरु जी उस पर भी तैयार नहीं हुए।
नेहरु जी का तर्क था कि झंडा गान ओर्केस्ट्रा पर नहीं बज सकता और जन गन मन ओर्केस्ट्रा पर बज सकता है। उस समय बात नहीं बनी तो नेहरु जी ने इस मुद्दे को गाँधी जी की मृत्यु तक टालेरखा और उनकी मृत्यु के बाद नेहरु जी ने जन गण मन को राष्ट्र गान घोषित कर दिया और जबरदस्ती भारतीयों पर इसे थोप दिया गया जबकि इसके जो बोल है उनका अर्थ कुछ और हीकहानी प्रस्तुत करते है, और दूसरा पक्ष नाराज न हो इसलिए वन्दे मातरम को राष्ट्रगीत बना दिया गया लेकिन कभी गया नहीं गया। नेहरु जी कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते थेजिससे कि अंग्रेजों के दिल को चोट पहुंचे, मुसलमानों के वो इतने हिमायती कैसे होसकते थे जिस आदमी ने पाकिस्तान बनवा दिया जब कि इस देश के मुसलमान पाकिस्तान नहीं चाहते थे,जन गण मन को इस लिए तरजीह दी गयी क्योंकि वो अंग्रेजों की भक्ति में गायागया गीत था और वन्देमातरम इसलिए पीछे रह गया क्योंकि इस गीत से अंगेजों को दर्द होता था।
बीबीसी ने एक सर्वे किया था। उसने पूरे संसार में जितने भी भारत के लोग रहते थे,उनसे पुछा कि आपको दोनों में से कौन सा गीत ज्यादा पसंद है तो 99 % लोगों ने कहा वन्देमातरम। बीबीसी के इस सर्वे से एक बात और साफ़ हुई कि दुनिया के सबसे लोकप्रिय गीतों में दुसरे नंबर पर वन्देमातरम है। कई देश है जिनके लोगों को इसके बोल समझ में नहीं आते है लेकिन वो कहते है कि इसमें जो लय है उससे एक जज्बा पैदा होता है।
तो ये इतिहास है वन्दे मातरम का और जन गण मन का। अब ये आप को तय करना है कि आपको क्या गाना है?
इतने लम्बे पत्र को आपने धैर्यपूर्वक पढ़ा इसके लिए आपका धन्यवाद्। और अच्छा लगा हो तो इसे फॉरवर्ड कीजिये,आप अगर और भारतीय भाषाएँ जानते हों तो इसे उस भाषा में अनुवादित कीजिये अंग्रेजी छोड़ कर।

Sunday, April 21, 2013

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


रामप्रसाद बिस्मिल भारत के महान सपूत थे जिन्होने भारत की आजादी के लिये अपने प्राणों की आहुति दे दी। उनका जन्म सन १८९७ में उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में हुआ था। १९ दिसम्बर, सन १९२७ को ब्रिटिश शासन ने उनको गोरखपुर जेल में फांसी पर चढा दिया।
रामप्रसाद बिस्मिल ने यह आत्म-कथा अपनी फांसी से दो दिन पहले ही समाप्त की थी।


बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित वन्दे मातरम् के बाद अमर शहीद रामप्रसाद 'बिस्मिल' का सरफरोशी की तमन्ना ही वह गीत है जिसे गाते हुए कितने ही देशभक्त फांसी के फन्दे को चूम लिये। यह गीत नीचे दिया जा रहा है :

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है


वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमान,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है


करता नहीं क्यूँ दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है


रहबरे राहे मुहब्बत, रह न जाना राह में
लज्जते-सेहरा न वर्दी दूरिए-मंजिल में है


अब न अगले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़
एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है ।


ए शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चरचा गैर की महफ़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


खैंच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीद,
आशिकों का आज जमघट कूचा-ए-कातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


है लिये हथियार दुशमन ताक में बैठा उधर,
और हम तैय्यार हैं सीना लिये अपना इधर,
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


हाथ जिन में हो जुनून कटते नही तलवार से,
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से,
और भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


हम तो घर से निकले ही थे बाँधकर सर पे कफ़न,
जान हथेली पर लिये लो बढ चले हैं ये कदम.
जिन्दगी तो अपनी मेहमान मौत की महफ़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


यूँ खड़ा मकतल में कातिल कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें कोई रोको ना आज
दूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


वो जिस्म भी क्या जिस्म है जिसमें ना हो खून-ए-जुनून
तूफ़ानों से क्या लड़े जो कश्ती-ए-साहिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है


- बिस्मिल आजिमाबादी

Friday, April 19, 2013

The Worst of the Worst dictator - ...तो क्‍या गद्दाफी, सद्दाम जैसा ही होगा मुशर्रफ का हश्र? - www.bhaskar.com


कभी जनता उनके आगे सिर झुकाती थी। आज जनता उन्हें गालियां देती है। कभी लोग उनके सामने जाने से डरते थे। आज वहीं सीना तान कर उन जूतों की बरसात करते हैं। यह कहानी दुनिया के बड़े तानाशाहों की जिन्होंने जितनी तेजी से फर्श से अर्श का सफर तय किया, उतनी तेजी से यह लोग नीचे आ गिरे। 
 
 
कभी पाकिस्तान पर एकछत्र राज्य करने वाले पूर्व राष्ट्रपति और फौजी तानाशाह परवेज मुशर्रफ अपने सबसे बदतरीन समय से गुजर रहे हैं। जिन जजों को कभी उन्होंने बंधक बनाया था, वे आज चुन-चुन कर बदला ले रहे हैं। मुशर्रफ को दो दिनों की ट्रांजिट रिमांड पर भेजा गया है। उन पर आतंकवाद विरोधी कानून के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है।
 
दुनिया में ऐसे बहुत से तानाशाह हुए जिन्होंने दशकों तक देश और दुनिया को हिला कर रखा। लेकिन अपने आखिरी वक्त में उनका हश्र बहुत ही बुरा हुआ। तानाशाह मुल्‍क कहे जाने वाले अमेरिका का भी आज हाल बुरा है।

Monday, April 15, 2013

देश का बंटवारा आज भी जख्म दे रहा है इन हिंदुओं को:


मात्र 3  दिन के अपने बेटे को उसके दादा-दादी के पास छोड्कर पाकिस्तान से तीर्थयात्रा वीजा पर भारत आने वाली 30 वर्षीय भारती रोती हुई अपनी व्यथा बताते हुए कहती है कि “अगर मै अपने बेटे का वीजा बनने का इंतज़ार करती तो कभी भी भारत न आ पाती.” 15 वर्षीय युवती माला का कहना है कि पाकिस्तान मे उनके लिये अपनी अस्मिता को बचाये रखना मुश्किल है तो 76 वर्षीय शोभाराम कहते है कि वे भारत मे हर तरह की सजा भुगत लेंगे परंतु अपने वतन पाकिस्तान वापस नही जायेंगे क्योंकि हमारा कसूर यह है कि हमने हिन्दू-धर्म मे पाकिस्तान की धरती पर जन्म लिया है. मै अपनी आँखो के सामने अपने घर की महिलाओ की अस्मिता लुटते नही देख सकता कहते हुए 80 वर्षीय बुजुर्ग वैशाखी लाल की आँखे नम हो गयी. दरअसल यह दिल्ली स्थित बिजवासन गाँव के एक सामाजिक कार्यकर्ता नाहर सिँह के द्वारा की गई आवास व्यवस्था मे रह रहे 479 पाकिस्तानी हिन्दुओं की कहानी है (कुल 200 परिवारो मे 480 लोग है, परंतु एक 6 माह की बच्ची का पिछले दिनो स्वर्गवास हो गया). एक माह की अवधि पर तीर्थयात्रा पर भारत आये पाकिस्तानी -हिन्दू अपने वतन वापस लौटने के लिये तैयार नही है, साथ ही भारत-सरकार के लिये चिंता की बात यह है कि इन पाकिस्तानी हिन्दुओ की वीजा-अवधि समाप्त हो चुकी है.
इतिहास के पन्नों में दर्ज 15 अगस्त 1947 वह तारीख है, जिस तारीख को भारत न केवल भौगोलिक दृष्टि से दो टुकडो में बँटा अपितु लोगो के दिल भी टुकडो मे बँट गये. पाकिस्तान के प्रणेता मुहमद अली जिन्ना को पाकिस्तान में हिन्दुओं के रहने पर कोई आपत्ति नहीं थी ऐसा उन्होंने अपने भाषण में भी कहा था  कि “क्योंकि पाकिस्तानी -  संविधान के अनुसार पाकिस्तान कोई मजहबी इस्लामी देश नहीं है , तथा विचार अभिव्यक्ति से लेकर धार्मिक स्वतंत्रता को वहा के संविधान के मौलिक अधिकारों में शामिल किया गया है.”  विभाजन की त्रासदी से लेकर अब तक गंगा-यमुना मे बहुत पानी बह चुका है. ज़ख्मो को भरने के लिये दोनो देशो के बीच आगरा जैसी कई वार्ताएँ हुई, टी.वी चैनलो पर कार्यक्रम किये गये, बस व रेलगाडी चलाई गयी, क्रिक़ेट खेला गया परंतु  ज़ख्म तो नही भरा, इसके उलट विभाजन का यह ज़ख्म एक् नासूर बन गया. स्वाधीन भारत की प्रथम सरकार मे उद्योग मंत्री डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के पुरजोर विरोध के उपरांत भी अप्रैल 1950 मे भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और लियाकत अली के साथ एक समझौता किया जिसके तहत भारत सरकार को पाकिस्तान मे रह रहे हिन्दुओ और सिखो के कल्याण हेतु प्रयास करने का अधिकार है. परंतु वह समझौता मात्र कागजी ही सिद्ध हुआ. पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओ ने हिन्दुस्तान में शरण लेने के लिए ज्योहि पलायन शुरू किया, विभाजन के घाव फिर से हरे हो गये. पर कोई अपनी मातृभूमि व जन्मभूमि से पलायन क्यों करता है यह अपने आप में एक गंभीर चिंतन का विषय है. क्योंकि मनुष्य का घर-जमीन मात्र एक भूमि का टुकड़ा न होकर उसके भाव-बंधन से जुड़ा होता है. समाचारो से पता चलता है कि पाकिस्तान में आये दिन हिन्दूओ पर जबरन धर्मांतरण,महिलाओ का अपहरण, उनका शोषण, इत्यादि जैसी घटनाएँ आम हो गयी है.
प्रकृति कभी भी किसी से कोई भेदभाव नहीं करती और इसने सदैव ही इस धरा पर मानव-योनि  में जन्मे सभी मानव को एक नजर से देखा है. हालाँकि मानव ने समय – समय पर अपनी सुविधानुसार दास-प्रथा, रंगभेद-नीति, सामंतवादी इत्यादि जैसी व्यवस्थाओं के आधार पर मानव-शोषण की ऐसी कालिमा पोती है जो इतिहास के पन्नो से शायद ही कभी धुले. समय बदला. लोगो ने ऐसी अत्याचारी व्यवस्थाओं के विरुद्ध आवाज उठाई. विश्व के मानस पटल पर सभी मुनष्यों को मानवता का अधिकार देने की बात उठी परिणामतः विश्व मानवाधिकार का गठन हुआ. मानवाधिकार के घोषणा-पत्र में साफ शब्दों में कहा गया कि मानवाधिकार हर व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है, जो प्रशासकों द्वारा जनता को दिया गया कोई उपहार नहीं है तथा इसके मुख्य विषय शिक्षा ,स्वास्थ्य ,रोजगार, आवास, संस्कृति ,खाद्यान्न व मनोरंजन इत्यादि से जुडी मानव की बुनयादी मांगों से संबंधित होंगे. इसके साथ-साथ अभी हाल में ही पिछले वर्ष मई के महीने में पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी  द्वारा मानवाधिकार कानून पर हस्ताक्षर करने से वहाँ एक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कार्यरत है.
ध्यान देने योग्य है कि अभी कुछ दिन पहले ही  पाकिस्तान  हिंदू काउंसिल के अध्यक्ष जेठानंद डूंगर मल कोहिस्तानी के अनुसार पिछले कुछ महीनों में बलूचिस्तान और सिंध प्रांतों से 11 हिंदू व्यापारियों सिंध प्रांत के और जैकोबाबाद से एक नाबालिग लड़की मनीषा कुमारी के अपहरण से हिंदुओं में डर पैदा हो गया है. वहा के  कुछ टीवी चैनलों के साथ - साथ पाकिस्तानी अखबार डॉन ने  भी 11 अगस्त के अपने संपादकीय में लिखा कि  ‘हिंदू समुदाय के अंदर असुरक्षा की भावना बढ़ रही है’  जिसके चलते जैकोबाबाद के कुछ हिंदू परिवारों ने धर्मांतरण,फिरौती और अपहरण के डर से भारत जाने का निर्णय किया है.  पाकिस्तान हिन्दू काउंसिल के अनुसार  वहां हर मास लगभग  20-25 लड़कियों का धर्म परिवर्तन कराकर शादियां कराई जा रही हैं.  यह संकट तो पहले केवल बलूचिस्तान तक ही सीमित था, लेकिन अब इसने पूरे पाकिस्तान को अपनी चपेट में ले लिया है. रिम्पल कुमारी का मसला अभी ज्यादा पुराना नहीं है कि उसने साहस कर न्यायालय का दरवाजा  तो खटखटाया, परन्तु वहाँ की उच्चतम न्यायालय भी उसकी मदद नहीं कर सका और अंततः उसने अपना हिन्दू धर्म बदल लिया. हिन्दू पंचायत के प्रमुख बाबू महेश लखानी ने दावा किया कि कई हिंदू परिवारों ने भारत जाकर बसने का फैसला किया है क्योंकि यहाँ की  पुलिस अपराधियों द्वारा फिरौती और  अपहरण के लिए निशाना बनाए जा रहे हिंदुओं की मदद नहीं करती है. इतना ही नहीं पाकिस्तान से भारत आने के लिए 300 हिंदू और सिखों के समूह  को पाकिस्तान ने  अटारी-वाघा बॉर्डर पर रोक कर सभी से वापस लौटने का लिखित वादा लिया गया. इसके बाद ही इनमें से 150 को भारत आने दिया गया.
अभी पिछले दिनो  पाकिस्तान द्वारा हिन्दुओ पर हो रही ज्यादतियों पर भारत की संसद में भी सभी दलों के नेताओ ने एक सुर में पाकिस्तान की आलोचना की जिस पर भारत के विदेश मंत्री ने सदन को यह कहकर धीरज बंधाया कि वे इस  मुद्दे पर पाकिस्तान से बात  करेंगे परन्तु पाकिस्तान से बात करना अथवा संयुक्त राष्ट्र में इस मामले को उठाना तो दूर यूंपीए सरकार ने इस मसले को ही ठन्डे बसते में डाल दिया और आज तक एक भी शब्द नहीं कहा. पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओ पर की जा रही बर्बरता को देखते हुए हम मान सकते है कि विश्व-मानवाधिकार पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओ के लिए नहीं है यह सौ प्रतिशत सच होता हुआ ऐसा प्रतीत होता है. भारत के कुछ हिन्दु संगठनो के लोगो के अनुसार इन पाकिस्तानी हिन्दुओ द्वारा इस सम्बन्ध में पिछले माह (मार्च) में ही भारत के राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री, गृह मंत्री, विदेश मंत्री, कानून मंत्री, दिल्ली के उपराज्यपाल व मुख्यमंत्री के साथ  सभी संबन्धित सरकारी विभागों सहित भारत व संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार आयोगों को भी पत्र भेजा जा चुका है किन्तु आज तक किसी के पास न तो इन पाक पीडितों का दर्द सुनने की फ़ुर्सत है और न ही किसी ऐसी कार्यवाही की जो पाकिस्तानी दरिंदगी पर अंकुश लगा सके. तो क्या यह मान लिया जाय कि पाकिस्तान के 76 वर्षीय शोभाराम का कहना सही ही है कि पाकिस्तानी हिन्दू अपने हिन्दू होने की सजा भुगत रहे है और उनके लिए मानवाधिकार की बात करना मात्र एक छलावा है ? ऐसी वीभत्स परिस्थिति मे यदि समय पर विश्व मानवाधिकार ने इस गंभीर समस्या पर कोई संज्ञान नहीं लिया यह अपने आप में विश्व मानवाधिकार की कार्यप्रणाली और उसके उद्देश्यों की पूर्ति पर ऐसा कुठाराघात है जिसे इतिहास कभी नहीं माफ़ करेगा.

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हिंदू शरणार्थियों कि किसी भी तरह कि सहायता करने के लिए सम्पर्क करें:
0996541063, 01275259734

हिंदू औरतें बोलीं, 'वे जबरन कलमा पढ़वाते हैं':

'मुझे जान से मार दो मगर पाकिस्तान वापस मत भेजो...'। कुछ ऐसा कहते हुए रो पड़े पाकिस्तानी हिंदू। कभी अपने वतन से बेहद प्यार करने वाले ये ‌लोग अब वहां नहीं जाना चाहते।

दक्षिणी दिल्ली के बिजवासन इलाके में रह रहे 479पाकिस्तानी हिंदुओं का जत्‍था करीब महीने भर पहले भारत तीर्थयात्रा पर आया था। पाकिस्तान में अपने साथ हो रहे अत्याचार और सरकारी उपेक्षा की वजह से अब वे वहां जाने को बिल्कुल तैयार नहीं हैं।

वीजा नहीं, नागरिकता की मांग
हालांकि इन लोगों के लिए राहत की बात यह है कि भारत सरकार ने 8 अप्रैल को खत्‍म हो रहे उनके वीजा अवधि को एक महीने को बढ़ा दिया गया है। लेकिन उन्हें अभी भी अपने भविष्य की चिंता है। इन लोगों की मांग है कि उन्हें भारतीय नागरिकता मिले।

इन हिंदुओं में कुछ लोगों ने जब मीडिया से अपना दर्द साझा किया तो माहौल गमगीन हो गया। एक औरत ने बताया कि पाकिस्तान में उनके साथ बेइंतहा जुल्म किए जाते हैं। वहां उन्हें अपने बच्चों को पढ़ाने की आजादी नहीं है। मजबूरी में उन्हें अपने बच्चों को मदरसे में पढ़ाना पड़ता है।

कुछ औरतों ने बताया, ''हमें हिंदी नहीं कलमा पढ़ने को बोला गया है। अब वहां रहने का बिल्कुल माहौल नहीं है।
पाकिस्तान में हमारे साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है। लूटपाट और डकैती तो आम बात है।''

दिल्ली में खानाबदोश की जिंदगी जी रहे इन लोगों को बस इतना संतोष है कि वे यहां सु‌रक्षित हैं।