Saturday, March 22, 2014

मैकाले शिक्षा पद्यति। एक गहरा सडयंत्र

*मैकाले* नाम हम अक्सर सुनते है मगर ये कौन था? इसके उद्देश्य और विचार क्या थे कुछ बिन्दुओं की विवेचना का प्रयास हैं करते. *मैकाले:* मैकाले का पूरा नाम था *थोमस बैबिंगटन मैकाले* .. अगर ब्रिटेन के नजरियें से देखें तो अंग्रेजों का ये एक अमूल्य रत्न था .. एक उम्दा* इतिहासकार, लेखक प्रबंधक, विचारक और देशभक्त* ..इसलिए इसे लार्ड की उपाधि मिली थी और इसे लार्ड मैकाले कहा जाने लगा..अब इसके महिमामंडन को छोड़ मैं इसके एक ब्रिटिश संसद को दिए गए प्रारूप का वर्णन करना उचित समझूंगा जो इसने भारत पर कब्ज़ा बनाये रखने के लिए दिया था...

*२ फ़रवरी १८३५ को ब्रिटेन की संसद में मैकाले की भारत के प्रति विचार और योजना मैकाले के शब्दों में.*.

*" "मैं भारत के कोने कोने में घुमा हूँ..मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया, जो भिखारी हो ,जो चोर हो, इस देश में मैंने इतनी धन दौलत देखी है,इतने ऊँचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं,की मैं नहीं समझता की हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे,जब तक इसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है.
और इसलिए मैं ये प्रस्ताव रखता हूँ की हम इसकी पुराणी और पुरातन शिक्षा व्यवस्था,उसकी संस्कृति को बदल डालें,क्युकी अगर भारतीय सोचने लग गए की जो भी बिदेशी और अंग्रेजी है वह अच्छा है,और उनकी अपनी चीजों से बेहतर है ,तो वे अपने आत्मगौरव और अपनी ही संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बनजाएंगे जैसा हम चाहते हैं.एक पूर्णरूप से गुलाम भारत" """*

कई सेकुलर बंधू इस भाषण की पंक्तियों को कपोल कल्पित कल्पना मानते है.. *अगर ये कपोल कल्पित पंक्तिया है, तो इन काल्पनिक पंक्तियों का कार्यान्वयन कैसे हुआ???* सेकुलर मैकाले की गद्दार औलादे इस प्रश्न पर बगले झाकती दिखती है..और कार्यान्वयन कुछ इस तरह हुआ की आज भी मैकाले व्योस्था की औलादे छद्म सेकुलर भेष में यत्र तत्र बिखरी पड़ी हैं..

अरे भाई मैकाले ने क्या नया कह दिया भारत के लिए??,भारत इतना संपन्न था की पहले सोने चांदी के सिक्के चलते थे कागज की नोट नहीं..धन दौलत की कमी होती तो इस्लामिक आतातायी श्वान और अंग्रेजी दलाल यहाँ क्यों आते..लाखों करोड़ रूपये के हीरे जवाहरात ब्रिटेन भेजे गए जिसके प्रमाण आज भी हैं मगर ये मैकाले का प्रबंधन ही है की आज भी हम लोग दुम हिलाते हैं अंग्रेजी और अंग्रेजी संस्कृति के सामने..*हिन्दुस्थान के बारे में बोलने वाला संकृति का ठेकेदार कहा जाता है और घृणा का पात्र होता है इस सभ्य समाज का..*

*शिक्षा व्यवस्था में मैकाले प्रभाव :* ये तो हम सभी मानते है की हमारी शिक्षा व्यवस्था हमारे समाज की दिशा एवं दशा तय करती है..बात १८२५ के लगभग की है..जब ईस्ट इंडिया कंपनी वितीय रूप से संक्रमण काल से गुजर रही थी और ये संकट उसे दिवालियेपन की कगार पर पहुंचा सकता था..कम्पनी का काम करने के लिए ब्रिटेन के स्नातक और कर्मचारी अब उसे महंगे पड़ने लगे थे..
१८२८ में गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक भारत आया जिसने लागत घटने के उद्देश्य से अब प्रसाशन में भारतीय लोगों के प्रवेश के लिए चार्टर एक्ट में एक प्रावधान जुड़वाया की सरकारी नौकरी में धर्म जाती या मूल का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा..
यहाँ से मैकाले का भारत में आने का रास्ता खुला..अब अंग्रेजों के सामने चुनौती थी की कैसे भारतियों को उस भाषा में पारंगत करें जिससे की ये अंग्रेजों के पढ़े लिखे हिंदुस्थानी गुलाम की तरह कार्य कर सकें..इस कार्य को आगे बढाया *जनरल कमेटी ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन के अध्यक्ष थोमस बैबिंगटन मैकाले ने* ....मैकाले की सोच स्पष्ट थी...जो की उसने ब्रिटेन की संसद में बताया जैसा ऊपर वर्णन है..
उसने पूरी तरह से भारतीय शिक्षा व्यवस्था को ख़तम करने और अंग्रेजी(जिसे हम मैकाले शिक्षा व्यवस्था भी कहते है) शिक्षा व्यवस्था को लागु करने का प्रारूप तैयार किया..
*मैकाले के शब्दों में:*
*"हमें एक हिन्दुस्थानियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है जो हम अंग्रेज शासकों एवं उन करोड़ों भारतीयों के बीच दुभाषिये का काम कर सके, जिन पर हम शासन करते हैं। हमें हिन्दुस्थानियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है, जिनका रंग और रक्त भले ही भारतीय हों लेकिन वह अपनी अभिरूचि, विचार, नैतिकता और बौद्धिकता में अंग्रेज हों"""*
और देखिये आज कितने ऐसे मैकाले व्योस्था की नाजायज श्वान रुपी संताने हमें मिल जाएंगी..जिनकी *मात्रभाषा अंग्रेजी है और धर्मपिता मैकाले..*
इस पद्दति को मैकाले ने सुन्दर प्रबंधन के साथ लागु किया..अब अंग्रेजी के गुलामों की संख्या बढने लगी और जो लोग अंग्रेजी नहीं जानते थे वो अपने आप को हीन भावना से देखने लगे क्यूकी सरकारी नौकरियों के ठाट उन्हें दीखते थे अपने भाइयों के जिन्होंने अंग्रेजी की गुलामी स्वीकार कर ली..और ऐसे गुलामों को ही सरकारी नौकरी की रेवड़ी बटती थी....
कालांतर में वे ही गुलाम अंग्रेजों की चापलूसी करते करते उन्नत होते गए और अंग्रेजी की *गुलामी न स्वीकारने वालों को अपने ही देश में दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया*..विडम्बना ये हुए की आजादी मिलते मिलते एक बड़ा वर्ग इन गुलामों का बन गया जो की अब स्वतंत्रता संघर्ष भी कर रहा था..यहाँ भी *मैकाले शिक्षा व्यवस्था चाल कामयाब हुई अंग्रेजों ने जब ये देखा की भारत में रहना असंभव है तो कुछ मैकाले और अंग्रेजी के गुलामों को सत्ता हस्तांतरण कर के ब्रिटेन चले गए*..मकसद पूरा हो चुका था.... अंग्रेज गए मगर उनकी नीतियों की गुलामी अब आने वाली पीढ़ियों को करनी थी...और उसका कार्यान्वयन करने के
लिए थे *कुछ हिन्दुस्तानी भेष में बौधिक और वैचारिक रूप से अंग्रेज नेता और देश के रखवाले* ..(*"नाम नहीं लूँगा क्युकी एडविना की आत्मा को कष्ट होगा)"""*
कालांतर में ये ही पद्धति विकसित करते रहे हमारे सत्ता के महानुभाव..इस प्रक्रिया में हमारी भारतीय भाषाएँ गौड़ होती गयी और हिन्दुस्थान में हिंदी विरोध का स्वर उठने लगा..*ब्रिटेन की बौधिक गुलामी के लिए आज का भारतीय समाज आन्दोलन करने लगा.*.फिर आया उपभोगतावाद का दौर और मिशिनरी स्कूलों का दौर..चूँकि २०० साल हमने अंग्रेजी को विशेष और भारतीयता को गौण मानना शुरू कर दिया था तो अंग्रेजी का मतलब सभ्य होना,उन्नत होना माना जाने लगा..

हमारी पीढियां मैकाले के प्रबंधन के अनुसार तैयार हो रही थी और हम *"भारत के शिशु मंदिरों को सांप्रदायिक कहने लगे क्युकी भारतीयता और वन्दे मातरम वहां सिखाया जाता था."""*..जब से बहुराष्ट्रीय कंपनिया आयीं उन्होंने अंग्रेजो का इतिहास दोहराना शुरू किया और हम सभी सभ्य बनने में उन्नत बनने में लगे रहे मैकाले की पद्धति के अनुसार..
अब आज वर्तमान में *हमें नौकरी देने वाली हैं अंग्रेजी कंपनिया जैसे इस्ट इंडिया थी*..अब ये ही कंपनिया शिक्षा व्यवस्था भी निर्धारित करने लगी और *फिर बात वही आयी कम लागत वाली*, तो उसी तरह का *अवैज्ञानिक व्योस्था *बनाओं जिससे *कम लागत में हिन्दुस्थानियों के श्रम एवं बुद्धि का दोहन* हो सके..
एक उदहारण देता हूँ कुकुरमुत्ते की तरह हैं इंजीनियरिंग और प्रबंधन संस्थान..मगर शिक्षा पद्धति ऐसी है की *१००० इलेक्ट्रोनिक्स इंजीनियरिंग स्नातकों में से शायद १० या १५ स्नातक ही रेडियो या किसी उपकरण की मरम्मत कर पायें *नयी शोध तो दूर की कौड़ी है..
अब ये स्नातक इन्ही अंग्रेजी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पास जातें है, और जीवन भर की *प्रतिभा ५ हजार रूपए प्रति महीने पर गिरवी रख गुलामों सा कार्य करते है...फिर भी अंग्रेजी की ही गाथा सुनाते है*..
अब जापान की बात करें* १०वीं में पढने वाला छात्र भी प्रयोगात्मक ज्ञान रखता है...किसी मैकाले का अनुसरण नहीं करता.*.
अगर कोई संस्थान अच्छा है जहाँ भारतीय प्रतिभाओं का समुचित विकास करने का परिवेश है तो उसके छात्रों को ये कंपनिया*किसी भी कीमत पर नासा और इंग्लैंड में बुला लेती है और हम मैकाले के गुलाम खुशिया मनाते है* की हमारा फला अमेरिका में नौकरी करता है..
इस प्रकार मैकाले की एक सोच ने हमारी आने वाली शिक्षा व्यवस्था को इस तरह पंगु बना दिया की न चाहते हुए भी हम उसकी गुलामी में फसते जा रहें है..

*समाज व्यवस्था में मैकाले प्रभाव :* अब समाज व्योस्था की बात करें तो शिक्षा से समाज का निर्माण होता है.. शिक्षा अंग्रेजी में हुए तो समाज खुद ही गुलामी करेगा..वर्तमान परिवेश में *MY HINDI IS A LITTLE BIT WEAK* बोलना स्टेटस सिम्बल बन रहा है जैसा मैकाले चाहता था की *हम अपनी संस्कृति को हीन समझे *...
मैं अगर कहीं यात्रा में हिंदी बोल दू,मेरे साथ का सहयात्री सोचता है की ये पिछड़ा है..*लोग सोचते है त्रुटी हिंदी में हो जाए चलेगा मगर अंग्रेजी में नहीं होनी चाहिए.*.और अब हिंगलिश भी आ गयी है बाज़ार में..क्या ऐसा नहीं लगता की *इस व्योस्था का हिंदुस्थानी धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का होता जा रहा है.*...अंग्रेजी जीवन में पूर्ण रूप से नहीं सिख पाया क्यूकी बिदेशी भाषा है...और हिंदी वो सीखना नहीं चाहता क्यूकी बेइज्जती होती है...
हमें अपने बच्चे की पढाई अंग्रेजी विद्यालय में करानी है क्यूकी दौड़ में पीछे रह जाएगा..*माता पिता भी क्या करें बच्चे को क्रांति के लिए भेजेंगे क्या???* क्यूकी आज अंग्रेजी न जानने वाला बेरोजगार है..*स्वरोजगार के संसाधन ये बहुराष्ट्रीय कंपनिया ख़तम* कर देंगी फिर गुलामी तो करनी ही होगी..तो क्या हम स्वीकार कर लें ये सब?? या हिंदी पढ़कर समाज में उपेक्षा के पात्र बने????
*शायद इसका एक ही उत्तर है हमे वर्तमान परिवेश में हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित उच्च आदर्शों को स्थापित करना होगा..हमें विवेकानंद का "स्व" और क्रांतिकारियों का देश दोनों को जोड़ कर स्वदेशी की कल्पना को मूर्त रूप देने का प्रयास करना होगा""*..चाहे भाषा हो या खान पान या रहन सहन पोशाक...
अगर मैकाले की व्योस्था को तोड़ने के लिए मैकाले की व्योस्था में जाना पड़े तो जाएँ ....*जैसे मैं अंग्रेजी गूगल का इस्तेमाल करके हिंदी लिख रहा हूँ..*
क्यूकी कीचड़ साफ करने के लिए हाथ गंदे करने होंगे..हर कोई छद्म सेकुलर बनकर सफ़ेद पोशाक पहन कर मैकाले के सुर में गायेगा तो आने वाली पीढियां हिन्दुस्थान को ही मैकाले का भारत बना देंगी.. उन्हें किसी ईस्ट इंडिया की जरुरत ही नहीं पड़ेगी गुलाम बनने के लिए..और शायद हमारे आदर्शो राम और कृष्ण को एक कार्टून मनोरंजन का पात्र....

आइये एक बार गुनगुनाये भारतेंदु जी को...
बोलो भईया दे दे तान..
हिंदी हिन्दू हिन्दुस्थान........

जय हिंद...

Friday, March 14, 2014

प्रेरणा दायक पंक्तियाँ

हरिवंशराय जी  की महान प्रेरणा दायक रचना ....

लहरों से डर कर
नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की
कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब
दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर,
सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास
रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना,
गिरकर चढ़ना
न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत
बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की
कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में
गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ
लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही
मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह
इसी हैरानी में.....।
मुट्ठी उसकी खाली
हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की
कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है,
इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई,
देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो,
नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर
मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही
जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की
कभी हार नहीं होती।

--हरिवंशराय बच्चन

Monday, January 13, 2014

लोहड़ी को जानें।

लोहड़ी शब्द तिल + रोड़ी शब्दों के मेल से बना है, जो समय के साथ बदल कर तिलोड़ी और बाद में लोहड़ी हो गया। पंजाब के कई इलाकों मे इसे लोही या लोई भी कहा जाता है।

लोहड़ी का सबंध कई ऐतिहासिक कहानियों के साथ जोड़ा जाता है, पर इस से जुड़ी प्रमुख लोककथा दुल्ला भट्टी की है जो मुगलों के समय का एक बहादुर योद्धा था, जिसने मुगलों के बढ़ते जुल्म के खिलाफ कदम उठाया। कहा जाता है कि एक ब्राह्मण की 2 लड़कियों सुंदरी और मुंदरी के साथ इलाके का मुगल शासक जबरन शादी करना चाहता था, पर उन दोनों की सगाई कहीं और हुई थी और उस मुगल शासक के डर से उनके भावी ससुराल वाले शादी के लिए तैयार नहीं थे।

इस मुसीबत की घडी में दुल्ला भट्टी ने ब्राह्मण की मदद की और लडके वालों को मना कर एक जंगल में आग जला कर सुंदरी और मुंदरी का व्याह करवाया। दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया। कहते हैं दुल्ले ने शगुन के रूप में उनको शक्कर दी थी। इसी कथा की हमायत करता लोहड़ी का यह गीत है, जिसे लोहड़ी के दिन गाया जाता है :

सुंदर, मुंदरिये हो,
तेरा कौन विचारा हो,
दुल्ला भट्टी वाला हो,
दुल्ले धी (लडकी)व्याही हो,
सेर शक्कर पाई हो।

दुल्ला भट्टी की जुल्म के खिलाफ मानवता की सेवा को आज भी लोग याद करते हैं और उस रात को लोहड़ी के रूप में सत्य और साहस की जुल्म पर जीत के तौर पर मनाते हैं। इस त्योहार का सबंध फसल से भी है, इस समय गेहूँ और सरसों की फसलें अपने यौवन पर होती हैं, खेतों में गेहुँ, छोले और सरसों जैसी फसलें लहराती हैं।

लोहड़ी के दिन गाँव के लड़के-लड़कियाँ अपनी-अपनी टोलियाँ बना कर घर-घर जा कर लोहड़ी के गाने गाते हुए लोहड़ी माँगते हैं। इन गीतों में दुल्ला भट्टी का गीत 'सुंदर, मुंदरिये हो,तेरा कौन विचारा हो...' , 'दे माई लोहड़ी, तेरी जीवे जोड़ी' , 'दे माई पाथी तेरा पुत्त चड़ेगा हाथी' आदि प्रमुख हैं। लोग उन्हें लोहड़ी के रूप में गुड, रेवड़ी, मूँगफली, तिल या फिर पैसे भी देते हैं। यह टोलियाँ रात को अग्नि जलाने के लिए घरों से लकडियाँ, उपलें आदि भी इकट्ठा करती हैं, और रात को गाँव के लोग अपने मुहल्ले में आग जला कर गीत गाते, भांगडा-गिद्धा करते, गुड, मूँगफली, रेवड़ी, धानी खाते हुए लोहड़ी मनाते हैं। अग्नि में तिल डालते हुए 'ईशर आए दलिदर जाए, दलिदर दी जड चुल्हे पाए' बोलते हुए अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हैं।

लोहड़ी का सबंध नए जन्मे बच्चों के साथ ज्यादा है। पुराने समय से ही यह रीत चली आ रही है कि जिस घर में लड़का जन्म लेता है, उस घर में लोहड़ी मनाई जाती है। लोहड़ी के कुछ दिन पहले पूरे गाँव में गुड़ बाँटा जाता है और लोहड़ी की रात सभी गाँव वाले लड़के के घर आते हैं और लकड़ियाँ, उपलें आदि से अग्नि जलाई जाती है। सभी को गुड़, मूँगफली, रेवड़ी, धानी आदि बाँटे जाते हैं।

आजकल कुछ लोग कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए लड़कियों के जन्म पर भी लोहड़ी मनाने लगे हैं, ताकि रुढ़ीवादी लोगों में लड़का-लड़की के अंतर को खत्म किया जा सके। कई इलाकों में विवाहित जोड़ी की पहली लोहड़ी मनाई जाती है, जिसमें लोहड़ी की पवित्र आग में तिल डालने के बाद जोड़ी बड़े-बुजुर्गो से आशीर्वाद लेती है।

लोहड़ी की रात गन्ने के रस की खीर बनाई जाती है और उसे अगले दिन माघी के दिन खाया जाता है, जिस के लिए 'पोह रिद्धी माघ खाधी' जैसी कहावत जुड़ी‍ हुई है, मतलब कि पौष में बनाई खीर माघ में खाई गई। ऐसा करना शुभ माना जाता है।

समय के बदलते रंग के साथ कई पुरानी रस्में और त्योहारों का आधुनिकीकरण हो गया है, लोहड़ी पर भी इसका प्रभाव पड़ा है। अब गाँव में लड़के-लड़कियाँ लोहड़ी माँगते हुए 'दे माई पाथी तेरा पुत्त चड़ेगा हाथी' या 'दुल्ला भट्टी वाला हो, दुल्ले धी व्याही हो' जैसे गीत गाते दिखाई नहीं देते, शायद कुछ लोगों को तो इन गीतों और लोहड़ी के इतिहास के बारे में पता भी नहीं होगा। लोहड़ी के गीतों का स्थान 'डीजे' ने ले लिया है।

भले कुछ भी हो, लेकिन लोहड़ी रिश्तों की मधुरता, सुकून और प्रेम का प्रतीक है। दुखों का नाश, प्यार और भाईचारे से मिल-जुल कर नफरत के बीज का नाश करने का नाम है लोहड़ी। लोहड़ी की रात परिवार और सगे-सबंधियों के साथ मिल बैठ कर हँसी-मजाक, नाच-गाना कर रिश्तों में मिठास भरने, सदभावना से रहने का संदेश देती है। लोहड़ी की महत्ता आज भी बरकरार है, उम्मीद है कि पवित्र अग्नि का यह त्योहार मानवता को सीधा रास्ता दिखाने और रूठों को मनाने का जरिया बनता रहेगा।

आपको लोहड़ी की ढेर सारी शुभकामनाएँ !!!! 

Sunday, January 12, 2014

धर्म-युद्ध

क्या जंग लगी तलवारों में, जो इतने दुर्दिन
सहते
होI
राणा प्रताप के वंशज हो,क्यों कुल
को कलंकित
करते होII आराध्य तुम्हारे राम-कृष्ण,जो कर्म की राह
दिखाते थेI
जो दुश्मन हो आततायी, वो चक्र सुदर्शन
उठाते
थेI
श्री राम ने रावण को मारा, तुम गद्दारों से डरते
होII
जब शस्त्रों से परहेज तुम्हे,तो राम राम
क्यों जपते
होI
क्या जंग लगी तलवारों में,जो इतने दुर्दिन सहते
होII
अंग्रेजों ने दौलत लूटी,मुगलों ने थी इज्जत
लूटी I
दौलत लूटी, इज्जत लूटी, क्या खुद्दारी भी लूट
लिया, गिद्धों ने माँ को नोंच लिया,तुम
शांति शांति को जपते होI
इस भगत सुभाष की धरती पर,क्यों नामर्दों से
रहते हो?
क्या जंग लगी तलवारों में जो इतने दुर्दिन
सहते होII
हिन्दू हो,कुछ प्रतिकार करो,तुम भारत माँ के
क्रंदन काI
यह समय नहीं है, शांति पाठ और गाँधी के
अभिनन्दन काII
यह समय है शस्त्र उठाने का,गद्दारों को समझाने
का,
शत्रु पक्ष की धरती पर,फिर शिव तांडव
दिखलाने
काII
इन जेहादी जयचंदों की घर में ही कब्र बनाने का,
यह समय है हर एक हिन्दू के,राणा प्रताप बन
जाने
काI
इस हिन्दुस्थान की धरती पर ,फिर
भगवा ध्वज फहराने काII
ये नहीं शोभता है तुमको,जो कायर
सी फरियाद
करोI
छोड़ो अब ये प्रेमालिंगन,कुछपौरुष
की भी बात करोII
इस हिन्दुस्थान की धरती के,उस भगत सिंह
को याद करो,
वो बन्दूको को बोते थे,तुम तलवारों से डरते होI
क्या जंग लगी तलवारों में जो इतने दुर्दिन
सहते हो.

Saturday, January 11, 2014

लाल बहादुर शास्त्री।

साल 1965 में भारत के इतिहास की वो घड़ी,
वो समझौता जिससे देश की आन बान शान
जुड़ी थी लेकिन हुआ कुछ इतना शर्मनाक कि शायद
वो इतिहास का कभी न भूले जाने वाला पन्ना बन कर
रह गया एक ऐसा नेता देश ने खोया जो शायद
कभी देश को चिराग लेकर ढूंढने से
भी नहीं मिलेगा जिसके बारे में किसी ने सोचा भी न
था कि देश का वो छोटे कद का लेकिन देश की नब्ज
को समझने वाला प्रधानमंत्री जो ताशकंद
गया था भारत की शान को बुलंदियों पर पहुंचाने के
लिए, लेकिन गलत मंसूबे लिए कुछ सियासदानों ने उसे
फिर दोबारा भारत की धरती पर ज़िदा कदम
ही नहीं रखने दिया जी हां आपने सही सोचा यहां मैं
बात कर रहा हूं देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर
शास्त्री की जिन्होंने 1965 का वो युद्ध जो लाल
बहादुर की बहादूरी की बदौलत और सूझ बूझ
की वजह से भारत लगभग जीत चुका था और लाहौर
तक हमारी सेना पूरे जोश के साथ घुस
चुकी थी लेकिन कुछ सियासी चालों में फंसकर देश के
अंदर बैठे कुछ गद्दारों की नापाक मंसूबों ने
पासों को पलटने पर मजबूर बना दिया जिसके तहत
सामने आया ताशकंद का वो समझौता जिसे देश
का कोई नागरिक नहीं चाहता था हर किसी का एक
ही सपना था कि जो पाकिस्तान रुपी टुकड़ा भारत ने
खोया है उसे फिर दोबारा भारत में मिला लिया जाए,
जिस पर खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर
शास्त्री भी अमल चाहते थे। लाल बहादुर
की बहादुरी के बारे में कहा जाता है कि जब
पाकिस्तान ने 1965 में शाम को 7:30 बजे हवाई
हमला कर दिया तो राष्ट्रपति ने आपातकालीन बैठक
बुलाई सेना अध्यक्षों ने पुछा कि बताइए
क्या करना है तो शास्त्री जी का सिर्फ एक
ही जबाव था कि आप देश की रक्षा करिए हमें
बताइए हमें क्या करना है और साथ ही एक
ऐतिहासिक नारा भी दिया “जय जवान जय किसान”
और जब युद्ध की ललकार पाकिस्तान की नीवें हिलाने
लगीं तो कुछ गद्दारों ने अपनी सियासी चालें
खेलना शुरु कर दिया और जैसे ही लाहौर के हवाई
अड्डे पर भारत की सेना पहुंचने
वाली थी कि तभी अमेरिका ने चाल के मद्देनज़र युद्ध
रोकने के लिए कहा। उसकी दलील थी कि युद्ध थोड़े
दिन के लिए टाल दिया जाए ताकि लाहौर में रह रहे
कुछ अमेरिकी नागरिक वहां से निकल जाएं जिसके
तहत रुस और अमेरिका ने युद्धविराम के लिए रुस के
ताशकंद में एक समझौता बुला लिया लेकिन अगर कुछ
इतिहासकारों की मानें तो लाल बहादुर
शास्त्री ताशकंद जाना ही नहीं चाहते थे लेकिन देश
के ही कुछ गद्दार नेताओं ने देश के अंदर ऐसा माहौल
पैदा किया कि लाल बहादुर शास्त्री को मजबूरन
ताशकंद जाने का फैसला मंजूर करना पड़ा ये बात सच
है कि भारत युद्ध जीत चुका था और दो तीन दिनों में
पूरा पाकिस्तान जीत लेता लेकिन नियति को कुछ और
ही मंजूर था हमारे देश का वो लाल जब ताशकंद
गया तो उसे ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर करने के
लिए कहा गया तो उसने दो टूक शब्दों में कह
दिया कि “भारत युद्ध में जीता हुआ हिस्सा वापस
नहीं करेगा” । जिसके बाद दबाव भी शास्त्री जी पर
डाला गया लेकिन उन्होंने कह दिया कि उनके जीवित
रहते जीता हुआ हिस्सा किसी भी कीमत पर वापस
नहीं होगा देश को उनके इस फैसले से बड़ा गर्व हुआ
उस भारत के बहादुर सच्चे सेवक पर, लेकिन
किसी को क्या पता था कि सियासी पैतरें खुद
शास्त्री जी की गर्दन दबाने पर लगे हुए हैं जिस दिन
शास्त्री जी ने हस्ताक्षर किए उसी रात
को शास्त्री जी की मौत की खबर भारत को दे दी गई
तो पूरा भारत वाकई स्तब्ध रह गया, लेकिन तब एक
और झटका लगा जब खुद भारत सरकार के हवाले से
कहा गया कि शास्त्री जी को हार्टअटैक पड़ा है
लेकिन उनकी पत्नी की मानें तो उनका शरीर बिल्कुल
नीला पड़ा हुआ था उनका कहना था कि उनके
पति को ज़हर दिया गया है लेकिन रुस में हुए उनके
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट का सच
तो छुपा दिया गया लेकिन खुद उनके ही देश भारत में
उनकी मौत की जांच पड़ताल के बजाए उनकी मौत
का सच जानने के लिए पोस्टमार्टम तक
नहीं कराया गया जिसके बाद सवाल भी उठे कि भारत
आखिर सच क्यों छिपाना चाहता है
ऐसा भी बताया जाता है कि रुस ने भारत
को पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी भेजी थी लेकिन उसे
आवाम को नहीं दिखाया गया। आखिर क्यों अपने
ही देश में उनकी मौत का सच छिपा दिया गया जिसके
संबंध में दलील दी गई कि ये अन्तर्राष्ट्रीय संबंध
की वजह से किया जा रहा है देश के लिए
इतनी शर्मनाक घटना लेकिन ऐसा बयान वाकई देश
को झकझोरने वाला था लेकिन शास्त्री जी की मृत्यू
के बाद कार्यवाहक के तौर पर गुलजारी लाल
नंदा को प्रधानमंत्री बनाया गया जिसके बाद
इंदिरा गांधी सत्ता में आई उनके रुस से बहुत अच्छे
संबंध थे इस वजह से भी देश को आजतक
शास्त्री जी की मौत का सच सुनने को नहीं मिला और
अब शास्त्री जी की मौत का रहस्य सिर्फ एक
कभी न सुलझने वाली पहेली बनकर ही रह गया। और
देश के सियासतदानों की उस
गल्ती का खामियाजा आज भी देश को उठाना पड़ा।