क्रिकेट में हर बड़ी हार के बाद औसत भारतीय नौजवान बिना किसी बाहरी दबाव के एक जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेता है। वो ये कि इनसे कुछ नहीं होगा, अब मुझे ही कुछ करना पड़ेगा। भले ही गली की टीम में उसकी जगह पक्की न हो, मगर वो मानता है कि इस देश में अगर कोई ऐसा प्रतिभावान, ऊर्जावान, पहलवान माई का लाल है, तो वो मेरी ही माई का है।
इस लिहाज से टीम इंडिया की हालिया हार का कुछ हद तक मैं भी जिम्मेदार हूँ। मगर यकीन मानिए दोस्तो, इसके लिए पूरी तरह मैं भी कसूरवार नहीं हूँ। जोश मुझमें भी खूब था, बिना फोटोशॉप में गए टीम इंडिया की तसवीर मैं भी बदलना चाहता था, मगर हालात कभी मेरे साथ नहीं रहे।
बचपन में जब ये बात संज्ञान में आई कि मैं एक ऐसे देश में पैदा हुआ हूँ, जहाँ नागरिकता का सबूत देने के लिए क्रिकेट खेलना जरूरी है, तो मैंने भी देशभक्ति दिखाई। शुरुआत लकड़ी के ऐसे टुकड़े से हुई, जिससे इत्तेफाक से घर में कपड़े भी धुलते थे। माँ उससे कपड़े धोतीं और मैं गेंदबाज। इलाके की दुकानों और मेरे शब्दकोष में उस समय तक क्रिकेट बैट का कोई वजूद नहीं था। शुरुआती क्रिकेट कॅरियर उसी थापे के सहारे आगे बढ़ा। फिर कद बढ़ा तो बड़े बल्ले की जरूरत महसूस हुई। अपने-अपने माँ-बाप से झगड़कर गली के दस-एक लड़कों ने मिलकर एक बैट खरीदा।
खेलते समय हम आईसीसी के किसी नियम के दबाव में नहीं आते थे। खिलाडि़यों की संख्या इस बात पर निर्भर करती कि कितनों के बाप घर पर हैं और कितनों के काम पर। गली में दाएँ-बाएँ घर थे, लिहाजा कवर ड्राइव और ऑन ड्राइव की मनाही थी। हम सिर्फ मुँह और गेंद उठा सामने मार सकते थे। उसमें भी कुछ ऐसे घरों में गेंद जाने पर आउट रखा था, जहाँ गेंद के बदले गालियाँ मिलती थीं।
कोलतार की सड़क अब भी हमारे लिए अफवाह थी। कच्ची सड़क पर जगह-जगह गड्ढे रहते। उन्हीं गड्ढों में अपनी योग्यता के हिसाब से निशाना साध हम लेग स्पिन और ऑफ स्पिन करते। गेंदबाजी एक्शन में अपने पसंदीदा गेंदबाजों की घटिया नकल करते। गली क्रिकेट के दौरान बरसों तक मैं खुद को महान् स्पिनर मानता रहा। मगर इस बीच हमारे यहाँ पक्की सड़क का आगमन हुआ। सड़क से गड्ढे और गेंदों से स्पिन गायब हो गई। तब पहली बार मुझे एहसास हुआ कि इस देश का पूरे का पूरा सिस्टम उभरती प्रतिभाओं को दबाने में लगा है।
ऐसे किसी दबाव को नकार हम गली से कूच कर मैदान पहुँचे। किसी को इनसान कहने के लिए जिस तरह उसमें अक्ल अनिवार्य शर्त नहीं है, उसी तरह बिना घास, बिना पिच और स्टैंड्स के इसे भी क्रिकेट स्टेडियम कहा जाता था। शहर के सभी लड़के अपनी भड़ास यहीं निकालते। क्रिकेट की जिन बारीकियों पर जानकार घंटों बहस करते हैं, जैसे बल्लेबाज का फुटवर्क, गेंदबाज का सीधा कंधा—हमें जरा भी प्रभावित नहीं करतीं। नियम इनसान की सहज बुद्धि खत्म कर देता है, ये मान हम अपने तरीके से खेलते। फिसड्डी बल्लेबाज, पैदल गेंदबाजों की बैंड बजाते और खुद को ब्रेडमैन मानते। थके हुए गेंदबाज खुद से ज्यादा थके हुओं की पिटाई कर मुगालतों में जीते।
इन्हीं मुगालतों को सीने से लगाए हम टीवी पर क्रिकेट मैच भी देखते। टीम की हर हार पर उसे चुन-चुनकर गालियाँ देते। यही सोचते कि जब मैं स्टेडियम में कोदूमल की गेंदों की धज्जियाँ उड़ा सकता हूँ तो भारतीय बल्लेबाज एम्ब्रोज की रेल क्यों नहीं बना सकते? हमारी नजर में नाई मोहल्ले के बिल्लू रंगीला और ऑस्ट्रेलिया के ब्रेट ली में कोई फर्क नहीं था। इस तरह अपने-अपने विश्वास से हम टीम इंडिया में चुने जाने के कगार पर थे। मगर तभी हमारे सारे सपने एक ही झटके में सूली पर चढ़ गए। कथित स्टेडियम में नई धान मंडी ट्रांसफर कर दी गई। विकेटों की जगह ट्रक और खिलाडि़यों की जगह आढ़तियों ने ले ली। जिस स्टेडियम से हम गेंदों को बाहर फेंकते थे, जल्द ही हमें उससे बाहर फेंक दिया गया। आज भी सोचता हूँ तो लगता है कि शायद होनी को मेरा धोनी बनना मंजूर ही नहीं था।
Neeraj Badhwar. Hum Sab Fake Hain (Hindi) . Prabhat Prakashan. Kindle Edition.
1 comment:
बढ़िया वर्णन
...
Post a Comment